Saturday, September 1, 2012

लिखे पढ़े होते अगर तो तुमको ख़त लिखते उस ख़त में हम तुम्हे क्या क्या लिखने के बहाने लिखते कुछ ख्वाब अधूरे लिखते कुछ गीत सुहाने लिखते जो बात अभी तक तुमसे घबरा कर बोल न पाए जो भीत तुम्हारे आगे शर्माकर खोल ना पाए अपना दीवानापन खोल कर तो दीवाने लिखते लिखते की घनी बरखा में सूरज की किरण लगती हो सावन की घटा में लिपटा चाँद का बदन लगती हो यादों में तुम्हारी खो कर हम भी अफसाने लिखते जब शाम को ठंडी ठंडी दखान से हवा आती है हर सांस में धीमी धीमी एक आग लगा जाती है कटते हैं तुम्हारे गम में कैसे वो जमाने लिखते

 लिखे पढ़े होते अगर तो तुमको ख़त लिखते
उस ख़त में हम तुम्हे क्या क्या लिखने के बहाने लिखते
कुछ ख्वाब अधूरे लिखते कुछ गीत सुहाने लिखते


जो बात अभी तक तुमसे घबरा कर बोल न पाए
जो भीत तुम्हारे आगे शर्माकर खोल ना पाए
अपना दीवानापन खोल कर तो दीवाने लिखते

लिखते की घनी बरखा में सूरज की किरण लगती हो
सावन की घटा में  लिपटा चाँद का बदन लगती हो
यादों में तुम्हारी खो कर हम भी अफसाने लिखते

जब शाम को ठंडी ठंडी दखान से हवा आती है
हर सांस में धीमी धीमी एक आग लगा जाती है
कटते हैं तुम्हारे गम में कैसे वो जमाने लिखते  

Saturday, July 7, 2012

ऐसा वादा न कर

ऐसा वादा न कर मुझसे की तू निभा न सके,
इतना दूर न जा की कभी मुझ पे हक़ जता न सके,

गलत्फमियों से न लगा नफरत की आग,
की चाह कर भी तू बुझा न सके,

न खीच दिल के आईने पे कुछ ऐसी रेखाएं जो चेहरा बदल दे,
की अपनी ही सूरत तू धडकनों को कभी दिखा न सके,

न बांध ज़माने के रिश्तों में मासूम प्यार को तू आज,
की कल खुदा सी  मोहब्बत के जस्बातों को तू कुछ समझा न सके,

है दम तेरी नफरत में तो छोड़ दे तस्बूर में भी मेरा ख्याल,
कहीं ऐसा न हो एक पल के लिए भी तेरी साँसे मुझे भुला न सके,
नामो निशा भी न छोड़ तू मेरी किसी निशानी का अपने पास,
लेकिन वक़्त के हाथ तेरे चेहरे से मेरे प्यार का निशा मिटा न सके,

सजा दिया नए रिश्तो की रौशनी ने मन तेरा जीवन,
पर यादों के लम्हों की दाल से ये मेरा नाम हाथ न सके,

इंसा से लेके खुदा तक सबने जिसे मिटाना चाहा
ऐसी मोहब्बत को भुलाने के लिए हम खुद को मन न सके,

न कर इतना शर्मिंदा मेरी मोहब्बत को आज,
की कल तू इस इश्क को अपने दिलके महल में सजा न 
सके.

'उनको ये शिकायत है.

'उनको ये शिकायत है.. मैं बेवफ़ाई पे नही लिखता,
और मैं सोचता हूँ कि मैं उनकी रुसवाई पे नही लिखता.'

'ख़ुद अपने से ज़्यादा बुरा, ज़माने में कौन है ??
मैं इसलिए औरों की.. बुराई पे नही लिखता.'
...
'कुछ तो आदत से मज़बूर हैं और कुछ फ़ितरतों की पसंद है ,
ज़ख़्म कितने भी गहरे हों?? मैं उनकी दुहाई पे नही लिखता.'

'दुनिया का क्या है हर हाल में, इल्ज़ाम लगाती है,
वरना क्या बात?? कि मैं कुछ अपनी.. सफ़ाई पे नही लिखता.'

'शान-ए-अमीरी पे करू कुछ अर्ज़.. मगर एक रुकावट है,
मेरे उसूल, मैं गुनाहों की.. कमाई पे नही लिखता.'

'उसकी ताक़त का नशा.. "मंत्र और कलमे" में बराबर है !!
मेरे दोस्तों!! मैं मज़हब की, लड़ाई पे नही लिखता.'

'समंदर को परखने का मेरा, नज़रिया ही अलग है यारों!!
मिज़ाज़ों पे लिखता हूँ मैं उसकी.. गहराई पे नही लिखता.'

'पराए दर्द को , मैं ग़ज़लों में महसूस करता हूँ ,
ये सच है मैं शज़र से फल की, जुदाई पे नही लिखता.'

'तजुर्बा तेरी मोहब्बत का'.. ना लिखने की वजह बस ये!!
क़ि शायर इश्क़ में ख़ुद अपनी, तबाही पे नही लिखता

Thursday, February 23, 2012

बचपन

दिन वो बड़े सुहाने थे..जब रूठते थे हम झूठ सेछोटी छोटी बात पर..ओर माँ मनाती गोद मे बिठाकर,,पूछती आसुओं को अपने आँचल से..ना थी कोई फ़िक्र कल की,,ना कोई स्पर्धा हर पल की..मस्ती मे कटते थे दिन..इंतज़ार बस रात का होता था,,जब चंदा मामा झाँकता बादल से..झगड़ते थे जब हम किसी सेछोटी सी किसी बात पर..मासूम थे हम दिल से फिर भी.शिकायत ना थी कभी..झूमते थे फिर उसकी एक आवाज़ से..आगे बढ़ने की चाह मेंदेखो हम कहाँ आ गये है..रूठे है तो कोई मनाने वाला नही..झगड़े तो कोई लौट कर आने वाला नही..इंतज़ार अब सिर्फ़ लम्हो के गुज़रने का होता है..जब बचपन था इतना अच्छा तोइंसान क्यों बड़ा होता है...पिता की उंगली हमेशा तुम्हारा हाथ जहाँ पकड़े थी..माँ की कहानियाँ वो..सुंदर सपनो मे तुम्हे जकड़े थी..आज हम खड़े है उस जगहलंबी राते जाग कर बिताते है..हर पल एक बेहतर ज़िंदगी के लिए..आँखे हो नम पर झूठमूठ मुस्कुराते है

राईटनटाईप पड़ौसी पड़ोसी है हिंदू न मुस्लिम…….

इस्लाम में पडोसी का पूरा खयाल रखने,उसके सुख दुख में भागीदार बनने और किसी भी तरह उसको दुख न पहुचाने की सख्त ताकीद की गई है। पडोस से बेपरवाह व्यक्ति को उसकी जिम्मेदारी का एहसास कराकर बताया गया है कि एक पडोसी के रूप में उसकी क्या-क्या जिम्मेदारियां हैं। पडोसी चाहे किसी भी मजहब का मानने वाला हो ,उसके प्रति ये पूरे हक अदा किए जाने चाहिए।
हरेक तश्नालब की हिमायत करूंगा,
समंदर मिला तो शिकायत करूंगा।
अगर आंच आई किसी जिंदगी पर,
हो अपना पराया हिफ़ाज़त करूंगा।
अभी तो ग़रीबों में मसरूफ हूँ मैं,
मिलेगी जो फुर्सत इबादत करूंगा।
तरक्की की ख़ातिर वो यूं कह रहा था,
मैं जिस्मों की खुलकर तिजारत करूंगा।
ज़मीर अपना बेचूंगा जो दौलत कमाउ,
अब इक रास्ता है सियासत करूंगा।
उसूलों पे अपने जो क़ायम रहेगा,
वो दुश्मन भी हो तो मुहब्बत करूंगा।
पड़ौसी पड़ौसी है हिंदू न मुस्लिम,
मैं बच्चो को यही हिदायत करूंगा।
क़लम जो लिखेगा वो बेबाक होगा,
अगर दिल ये माना सहाफत करूंगा।।