Wednesday, November 4, 2009

इस बार नहीं (आतंकवाद पर आधारित कविता)-प्रसून जोशी

इस बार नहीं

इस बार जब वह छोटी सी बच्ची
मेरे पास अपनी खरोंच लेकर आएगी
उसे फु-फु करके नहीं बहलाऊंगा
पनपने दूंगा उसकी टीस को
इस बार नहीं
इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखूंगा
नहीं गाऊंगा गीत पीड़ा भुला देने वाले
दर्द को रिसने दूँगा
उतरने दूँगा गहरे
इस बार नहीं
इस बार मैं ना मरहम लगाऊंगा
ना ही उठाऊंगा रुई के फाहे
और ना ही कहूँगा कि तुम आँखें बंद कर लो,
गर्दन उधर कर लो मैं दवा लगाता हूँ
देखने दूँगा सबको
हम सबको
खुले नंगे घाव
इस बार नहीं
इस बार जब उलझनें देखूंगा,
छटपटाहट देखूंगा
नहीं दौडूँगा उलझी डोर लपेटने
उलझने दूँगा जब तक उलझ सके
इस बार नहीं
इस बार कर्म का हवाला दे कर नहीं उठाऊंगा औजार
नहीं करूँगा फिर से एक नई शुरूआत
नहीं बनूँगा एक मिसाल एक कर्मयोगी कि
नहीं आने दूँगा जिंदगी को आसानी से पटरी पर
उतरने दूँगा उसे कीचड़ में टेढ़े मेढ़े रास्तों पे
नहीं सूखने दूँगा दीवारों पर लगा खून
हल्का नहीं पड़ने दूँगा उसका रंग
इस बार नहीं बनने दूँगा उसे इतना लाचार
कि पान कि पीक और खून का फर्क ही ख़त्म हो जाए
इस बार नहीं
इस बार घावों को देखना है
गौर से
थोड़ा लंबे वक्त तक
कुछ फैसले
और उसके बाद हौसले
कहीं तो शुरुआत करनी ही होगी
इस बार यही तय किया है