Wednesday, June 17, 2009

जिंदगी ऐ जिंदगी - अहमद फराज

जिससे ये तबियत बड़ी मुश्किल से लगी थी
देखा तो वो तस्वीर हर एक दिल से लगी थी
तनहाई में रोते हैं कि यूँ दिल को सुकूँ हो
ये चोट किसी साहिबे-महफ़िल से लगी थी
ऐ दिल तेरे आशोब1 ने फिर हश्र2 जगाया
बे-दर्द अभी आँख भी मुश्किल से लगी थी
ख़िलक़त3 का अजब हाल था उस कू-ए-सितम4 में
साये की तरह दामने-क़ातिल5 से लगी थी
उतारा भी तो कब दर्द का चढ़ता हुआ दरिया
जब कश्ती ए-जाँ6 मौत के साहिल7 से लगी थी
1. हलचल, उपद्रव, 2. प्रलय, मुसीबत, 3. जनता 4. अत्याचार की गली 5. हत्यारे के पल्लू 6. जीवन नौका 7. किनारा

तू पास भी हो तो दिले-बेक़रार अपना है
कि हमको तेरा नहीं इन्तज़ार अपना है
मिले कोई भी तेरा जिक्र छेड़ देते हैं कि
जैसे सारा जहाँ राज़दार अपना है
वो दूर हो तो बजा तर्के-दोस्ती1 का ख़याल
वो सामने हो तो कब इख़्तियार2 अपना है
ज़माने भर के दुखो को लगा लिया दिल से
इस आसरे पे कि एक ग़मगुसार3 अपना है
बला से जाँ का ज़ियाँ4 हो, इस एतमाद5 की ख़ैर
वफ़ा करे न करे फिर भी यार अपना है
फ़राज़ राहते-जाँ भी वही है क्या कीजे
वो जिसके हाथ से सीना फ़िगार6 अपना है
1. दोस्ती छोड़नी 2. वश 3. दुख सहने वाला 4. नुकसान 5. विश्वास, भरोसा, 6 घायल, आहत

अब वो झोंके कहाँ सबा1 जैसे
आग है शहर की हवा जैसे
शब सुलगती है दोपहर की तरह
चाँद, सूरज से जल बुझा जैसे
मुद्दतों बाद भी ये आलम है
आज ही तो जुदा हुआ जैसे
इस तरह मंज़िलों से हूँ महरूम2
मैं शरीके-सफ़र3 न था जैसे
अब भी वैसी है दूरी-ए-मंज़िल
साथ चलता हो रास्ता जैसे
इत्तफ़ाक़न भी ज़िन्दगी में फ़राज़
दोस्त मिलते नहीं ज़िया4 जैसे
1 पुरवाई, समीर, ठण्डी हवा 2. वंचित, 3. सफ़र में शामिल 4 ज़ियाउद्दीन ज़िया

फिर उसी रहगुज़ार पर शायद
हम कभी मिल सकें मगर, शायद
जिनके हम मुन्तज़र1 रहे उनको
मिल गये और हमसफर शायद
जान पहचान से भी क्या होगा
फिर भी ऐ दोस्त, ग़ौर कर शायद
अजनबीयत की धुन्ध छँट जाये
चमक उठे तेरी नज़र शायद
ज़िन्दगी भर लहू रुलायेगी
यादे-याराने-बेख़बर2 शायद
जो भी बिछड़े, वो कब मिले हैं फ़राज़
फिर भी तू इन्तज़ार कर शायद
1. प्रतीक्षारत 2. भूले-बिसरे दोस्तों की यादें

बेसरो-सामाँ1 थे लेकिन इतना अन्दाज़ा न था
इससे पहले शहर के लुटने का आवाज़ा2 न था
ज़र्फ़े-दिल3 देखा तो आँखें कर्ब4 से पथरा गयीं
ख़ून रोने की तमन्ना का ये ख़मियाज़ा5 न था
आ मेरे पहलू में आ ऐ रौनके- बज़्मे-ख़याल6
लज्ज़ते-रुख़्सारो-लब7 का अबतक अन्दाजा न था
हमने देखा है ख़िजाँ8 में भी तेरी आमद के बाद
कौन सा गुल था कि गुलशन में तरो-ताज़ा न था
हम क़सीदा ख़्वाँ9 नहीं उस हुस्न के लेकिन फ़राज़
इतना कहते हैं रहीने-सुर्मा-ओ-ग़ाज़ा10 न था
1 ज़िन्दगी के ज़रूरी सामान के बिना 2. धूम 3. दिल की सहनशीलता 4. दुख, बेचैनी, 5. परिणाम, करनी का फल 6. कल्पना की सभा की शोभा 7. गालों और होंटों का आनन्द 8. पतझड़ 9,. प्रशस्ति-गायक, प्रशंसक 10 सुर्मे और लाली पर निर्भर

हर तस्वीर अधूरी - महताब हैदर नकवी

(१)
उसे भुलाये हुए मुझको इक ज़माना हुआ
कि अब तमाम मेरे दर्द का फ़साना हुआ
हुआ बदन तेरा दुश्मन, अदू1 हुई मेरी रूह
मैं किसके दाम2 में आया हवस निशाना हुआ

यही चिराग़ जो रोशन है बुझ भी सकता था
भला हुआ कि हवाओं का सामना न हुआ

कि जिसकी सुबह महकती थी, शाम रोशन थी
sunaa है वो दर-ए-दौलत ग़रीब-ख़ाना हुआ

वो लोग खुश हैं कि वाबस्ता-ए-ज़माना3 हैं
मैं मुतमइन4 हूँ कि दर इसका मुझ पे वा5 न हुआ
1. शत्रु 2. जाल 3. युग से सम्बद्ध 4. संतुष्ट 5. खुला हुआ
(२)
सुबह की पहली किरन पर रात ने हमला किया
और मैं बैठा हुआ सारा समां देखा किया

ऐ हवा ! दुनिया में बस तू है बुलन्दइक़बाल1 है
तूने सारे शहर पे आसेब2 का साया किया

इक सदा ऐसी कि सारा शहर सन्नाटे में गुम
एक चिनगारी ने सारे शहर को ठंण्डा किया

कोई aansoon आँख की दहलीज़ पर रुक-सा गया
कोई मंज़र अपने ऊपर देर तक रोया किया

सबको इस मंजर में अपनी बेहिसी पर फ़ख़ है
किसने तेरा सामना पागल हवा कितना कीया
1। तेजस्वी 2. प्रेत-बाधा 3. मिलन 4. विरह-स्थल
(३)
मुख़्तसर-सी1 ज़िन्दगी में कितनी नादानी करे
इस नज़ारों को कोई देखे कि हैरानी करे
धूप में इन आबगीनों2 को लिए फिरता हूँ मैं
कोई साया मेरे ख़्वाबों की निगहबानी करे
रात ऐसी चाहिए माँगे जो दिनभर का हिसाब
ख़्वाब ऐसा हो जो इन आँखों में वीरानी करे
एक मैं हूँ और दस्तक कितने दरवाज़ों पे दूँ
कितनी दहलीज़ों पे सज़दा एक पेशानी3 करे
साहिलों पर मैं खड़ा हूँ तिश्नाकामों4 की तरह
कोई मौज-ए-आब5 मेरी आँख को पानी करे
1. छोटी-सी 2. बहुत बारीक काँच की बोतलें 3. माथा 4. प्यासों 5. पानी की लहर

कहकशां का सफर - फ़िराक़ गोरखपुरी

(१)
बदलता है जिस तरह पहलू जमाना
यूँ ही भूल जाना, यूँ ही याद आना

अजब सोहबतें हैं मोहब्बतज़दों1 की
न बेगाना कोई, न कोई यगाना२

फुसूँ3 फूँक रक्खा है ऐसा किसी ने
बदलता चला जा रहा है ज़माना

जवानी की रातें, मोहब्बत की बातें
कहानी-कहानी, फ़साना-फ़साना

तुझे याद करता हूँ और सोचता हूँ
मोहब्बत है शायद तुझे भूल जाना
1।प्रेम के मारे हुए, 2. आत्मीय, 3. जादू
(२)
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िन्दगी ! हम दूर से पहचान लेते हें

जिसे कहती है दुनिया कामयाबी वाए1 नादानी
उसे किन क़ीमतों पर कामयाब इन्सान लेते हें

तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हें

खुद अपना फ़ैसला भी इश्क़ में काफ़ी नहीं होता
उसे भी कैसे कर गुज़रें जो दिल में ठान लेते हैं

जिसे सूरत बताते हैं पता देती है सीरत2 का
इबारत देखकर जिस तरह मा’नी जान लेते हें

तुझे घाटा न होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त में
हम अपने सर तिरा ऐ दोस्त हर नुक़सान लेते हैं

ज़माना वारदात-ए-क़ल्ब सुनने को तरसता है
इसी से तो सर-आँखों पर मिरा दीवान लेते हैं
1.हाय-हाय, 2.स्वभाव

रौशनी के घरोंदे - बशीर बद्र

कभी-कभी तो छलक पड़ती हैं यू ही आँखें
उदास होने का कोई सबब नहीं होता


तेरी आँखों में ऐसा सँवर जाऊँ मैं
उम्रभर आइनों की ज़रूरत न हो

मैं तमाम तारे उठा-उठा के ग़रीब लोगों में बाँट दूँ
कभी एक रात वो आस्माँ का निज़ाम दें मेरे हाथ में

सोये कहाँ थे आँखों ने तकिये भिगोये थे
हम भी कभी किसी के लिए खूब रोये थे

देने वाले ने दिया सब कुछ अलग अन्दाज़ से
सामने दुनिया पड़ी है और उठा सकते नहीं
यहाँ लिबास की कीमत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम करे दे

साए में धुप - दुष्यंत कुमार

हाथों में अंगारों को लिये सोच रहा था,
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए।

कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिये।

न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफ़र के लिए।

खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख़्वाब सही,
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए।

वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए।

तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर को,
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए।

जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं,
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।

वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको,
क़ायदे-कानून समझाने लगे हैं।

एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है,
जिसमें तहख़ानों से तहख़ाने लगे हैं।

मछलियों में खलबली है, अब सफ़ीने,
उस तरफ जाने से कतराने लगे हैं।

मौलवी से डाँट खाकर अहले मक़तब
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं।

अब नयी तहज़ीब के पेशे-नज़र हम,
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं।

ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा,
मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा।

यहाँ तक आते-आते सूख जाती है कई नदियाँ,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।

ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते,
वो सब-के-सब परीशाँ हैं, वहाँ पर क्या हुआ होगा।

तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुनकर तो लगता है,
कि इन्सानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा।

कई फ़ाके बिताकर मर गया, जो उसके बारे में,
वो सब कहते हैं अब ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होगा।

यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं,
ख़ुदा जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा।

चलो, अब यादगारों की अंधेरी कोठरी खोलें,
कम-अज़-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा।

माँ - मुनव्वर राना

ज़रा-सी बात है लेकिन हवा को कौन समझाये,

दिये से मेरी माँ मेरे लिए काजल बनाती है।
मुनव्वर राना
तमाम उम्र ये झूला नहीं उतरता है
मेरी माँ बताती है कि बचपन में मुझे सूखे की बीमारी थी, माँ को यह बताने की ज़रूरत क्या है, मुझे तो मालूम ही है कि मुझे कुछ-न-कुछ बीमारी ज़रूर है क्योंकि आज तक मैं बीमार सा हूँ ! दरअस्ल मेरा जिस्म बीमारी से रिश्तेदारी निभाने में हमेशा पेशपेश रहा है। शायद इसी सूखे का असर है कि आज तक मेरी ज़िन्दगी का हर कुआँ खुश्क है, आरजू का, दोस्ती का, मोहब्बत का, वफ़ादारी का ! माँ कहती है बचपन में मुझे हँसी बहुत आती थी, हँसती तो मैं आज भी हूँ लेकिन सिर्फ़ अपनी बेबसी पर, अपनी नाकामी पर, अपनी मजबूरियों पर और अपनी तनहाई पर लेकिन शायद यह हँसी नहीं है, मेरे आँसुओं की बिगड़ी हुई तस्वीर है, मेरे अहसास की भटकती हुई आत्मा है। मेरी हँसी ‘इंशा’ की खोखली हँसी, ‘मीर’ की ख़ामोश उदासी और ‘ग़ालिब’ के जिद्दी फक्कड़पन से बहुत मिलती-जुलती है।मेरे हँसी तो मेरे ग़मों का लिबास हैलेकिन ज़माना इतना कहाँ ग़म-शनास हैपैवन्द की तरह चमकती हुई रौशनी, रौशनी में नज़र आते हुए बुझे-बुझे चेहरे, चेहरों पर लिखी दास्तानें, दास्तानों में छुपा हुआ माज़ी, माज़ी में छुपा हुआ मेरा बचपन, जुगनुओं को चुनता हुआ बचपन, तितलियों को पकड़ता हुआ बचपन, पे़ड़ की शाखों से झूलता हुआ बचपन, खिलौनों की दुकानों को ताकता हुआ बचपन, बाप की गोद में हँसता हुआ बचपन, माँ की आगोश में मुस्कुराता हुआ बचपन, मस्जिदों में नमाज़ें पढ़ता हुआ बचपन, मदरसों में सिपारे रटता हुआ बचपन, झील में तैरता हुआ बचपन, धूल-मिट्टी से सँवरता हुआ बचपन, नन्हें-नन्हें हाथों से दुआएँ माँगता हुआ बचपन, गुल्ले से निशाने लगाता हुआ बचपन, पतंग की डोर में उलझा हुआ बचपन, नींद में चौंकता हुआ बचपन, ख़ुदा जाने किन भूल-भुलैयों में खोकर रह गया है, कौन संगदिल इन सुनहरे दिनों को मुझसे छीनकर ले गया है, नदी के किनारे बालू से घरौंदे बनाने के दिन कहाँ खो गए, रेत भी मौजूद है, नदी भी नागिनों की तरह बल खा कर गुज़रती है लेकिन मेरे यह हाथ जो महल तामीर कर सकते हैं, अब घरौंदे क्यों नहीं बना पाते, क्या पराँठे रोटियों की लज़्ज़त छीन लेते हैं, क्या पस्ती को बलन्दी अपने पास नहीं बैठने देती, क्या अमीरी, ग़रीबी का ज़ायक़ा नहीं पहचानती, क्या जवानी बचपन को क़त्ल कर देती है ?मई और जून की तेज़ धूप में माँ चीखती रहती थी और बचपन पेड की शाखों पर झूला करता था, क्या धूप चाँदनी से ज्यादा हसीन होती है, माचिस की ख़ाली डिबियों से बनी रेलगाड़ी की पटरियाँ चुराकर कौन ले गया, काश कोई मुझसे कारों का ये क़ाफ़िला ले ले, और इसके बदले में मेरी वही छुक-छुक करती हुई रेलगाड़ी मुझे दे दे, क्योंकि लोहे और स्टील की बनी हुई गाड़ियाँ वहाँ नहीं रुकतीं जहाँ भोली-भाली ख़्वाहिशें मुसाफ़िरों की तरह इन्तिजार करती हैं, जहाँ मासूम तमन्नाएँ नन्हें-नन्हें होठों से बजने वाली सीटियों पर कान लगाए रहती हैं।कोई मुझे मेरे घर के सामने वाला कुआँ वापस ला दे जो मेरी माँ की तरह ख़ामोश और पाक रहता था, मेरी मौसी जब मुझे अपने गाँव लेकर चली जातीं तो माँ ख़ौफज़दा हो जाती थी क्योंकि मैं सोते में चलने का आदी था, माँ डरती थी कि मैं कहीं आँगन में कुएँ में न गिर पड़ूँ, माँ रात भर रो-रोकर कुएँ के पानी से कहती रहती कि, ऐ पानी ! मेरे बेटे को डूबने मत देना, माँ समझती थी कि शायद पानी से पानी का रिश्ता होता है, मेरे घर का कुआँ बहुत हस्सास था, माँ जितनी देर कुएँ से बातें करती थी कुआँ अपने उबलते हुए पानी को पुरसुकूत रहने का हुक्म देता था, शायद वह मेरी माँ की भोली-भाली ख्वाहिशों की आहट को एहतेराम से सुनना चाहता था। पता नहीं यह पाकीज़गी और ख़ामोशी माँ से कुएँ ने सीखी थी या कुएँ से माँ ने ?गर्मियों की धूप में जब टूटे हुए एक छप्पर के नीचे माँ लू और धूप से टाट के पर्दों के ज़रिए मुझे बचाने की कोशिश करती तो मुझे अपने आँगन में दाना चुगते हुए चूज़े बहुत अच्छे लगते जिन्हें उनकी माँ हर खतरे से बचाने के लिए अपने नाजुक परों में छुपा लेती थी। माँ की मुहब्बत के आँचल ने मुझे तो हमेशा महफूज रखा लेकिन गरीबी के तेज झक्कड़ों ने माँ के खूबसूरत चेहरे को झुलसा-झुलसा कर साँवला कर दिया। घर के कच्चे आँगन से उड़ने वाली परेशानी की धूल ने मेरी माँ का रंग मटमैला कर दिया। दादी भी मुझे बहुत चाहती थी। वह हर वक़्त मुझे ही तका करती, शायद वह मेरे भोले-भाले चेहरे में अपने उस बेटे को तलाश करती थी जो ट्रक ड्राइवर की सीट पर बैठा हुआ शेरशाह सूरी के बनाए हुए रास्तों पर हमेशा गर्मेसफ़र रहता था।

हुल्लड़ मुरादाबादी

मान जा तदबीर पर मत नाज़ कर शक किया वो भी खुदा पर, डूब मरनैमतें देगा मगर यह शर्त है तू उसी के नाम से आगाज़ कर
साल आया है नया
बाल धोनी से बढ़ा ले, साल आया है नया कटिंग के पैसे बचा ले, साल आया है नयाऐड की शूटिंग करो, किरकेट जाए भाड़ में रैंप पर खुद को चला ले, साल आया है नया जो पुरानी चप्पलें हैं, मन्दिरों के पास रखकुछ नये जूते उठा ले, साल आया है नयाआरती का थाल आए तो चवन्नी डालकरनोट तू दस का उठा ले, साल आया है नया चार मुक्तक तो हमारे सामने ही पढ़ गया संकलन पूरा चुरा ले, साल आया है नया चाहता है तू हसीनों से अगर नज़दीकियाँचाट का ठेला लगा ले, साल आया है नया मैं अठन्नी दे रहा था, तब भिखारी ने कहा तू यहां चादर बिछा ले, साल आया है नया चार दिन तो बर्फ गिरने के बहाने चल गएआज तो ‘हुल्लड़’ नहा ले, साल आया है नया जो कि पिछले साल तुझको दे रहा था गालियाँचाय पर उसको बुला ले साल आया है नया
रोज़ कुछ टाइम निकालो मुस्कराने के लिए
मसखरा मशहूर है, आँसू छिपाने के लिएबाँटता है वो हँसी, सारे ज़माने के लिएज़ख्म सबको मत दिखाओ, लोग छिड़केंगे नमकआएगा कोई नहीं मरहम लगाने के लिएदेखकर तेरी तरक्की, खुश नहीं होगा कोईलोग मौका ढूँढ़ते हैं काट खाने के लिएफलसफा कोई नहीं है और न मकसद कोईलोग कुछ आते जहाँ में, हिनहिनाने के लिए मिल रहा था भीख में सिक्का मुझे सम्मान का मैं नहीं तैयार था झुककर उठाने के लिए ज़िन्दगी में गम बहुत हैं, हर कदम पर हादसे रोज़ कुछ टाइम निकालो मुस्कराने के लिए
अच्छा है पर कभी कभी
बहरों को फरियाद सुनाना, अच्छा है पर कभी कभीअन्धों को दर्पण दिखाना, अच्छा है पर कभी कभीऐसा न हो तेरी कोई उँगली गायब हो जाएनेताओं से हाथ मिलाना, अच्छा है पर कभी कभीबीवी को बन्दूक सिखाकर तुमने रिस्की काम कियाअपनी लुटिया आप डुबाना अच्छा है पर कभी कभीहाथ देखकर पहलवान का, अपना सर फुड़वा बैठेपामिस्ट्री में सच बतलाना, अच्छा है पर कभी कभीतुम रूहानी शे’र पढ़ोगे, पब्लिक सब भग जायेगी भैंस के आगे बीन बजाना, अच्छा है पर कभी कभीघूँसे लात चले आपस में, संयोजक का सिर फूटाकवियों को दारू पिलवाना अच्छा है पर कभी कभी जितने चाँदी के चम्मच थे, सबके सब गायब पाएकवियों को मेहमान बनाना अच्छा है पर कभी कभीपचीस डालर जुर्माने के पीक थूकने में खर्चेवाशिंगटन में पान चबाना, अच्छा है पर कभी कभीमिस्टर टुल्लानन्द भारती सम्मेलन में हूट हुए किसी और के गीत सुनाना अच्छा है पर कभी कभी तू मन्दिर में ढूँढ़ रहा है, वो तो तेरे दिल में हैपत्थर को भगवान बनाना, अच्छा है पर कभी कभीबाहर काफी चकाचौंध है भीतर बहुत अँधेरा है धन की खातिर खुद बिक जाना अच्छा है पर कभी कभीहमने देखा कल सपने में लालू जी ने दूध दिया गाय भैंस का चारा खाना अच्छा है पर कभी कभी
छुट्टियाँ नहीं होतीं
इतनी ऊँची मत छोड़ो, गिर पड़ोगे धरती पर क्योंकि आसमानों में, सीढ़ियाँ नहीं होतींमत करो बुढ़ापे में इश्क की तमन्नाएँक्योंकि फ्यूज़ बल्बों में बिजलियाँ नहीं होतींरोज़ क्यों नहाते हो वज्न मत घटाओ तुम वो बदन भी क्या जिसमें खुजलियाँ नहीं होतींजब से यह पुलिस वाले गश्त पर नहीं आते तबसे इस मुहल्ले में चोरियाँ नहीं होतीं ये तो आम जनता है चाहे चूस लो जितना फिक्र मत करो इनमें गुठलियाँ नहीं होतींमार खा के सोता है रोज़ अपनी आया से सबके भाग्य में माँ की लोरियाँ नहीं होतींजो तलाश में खुद की चल रहे अकेले हैंयार उनके पावों में जूतियाँ नहीं होतीं वो भरी जवानी में खुदकुशी नहीं करता काश उसके कुनबे में बेटियाँ नहीं होतींसबको उस रज़िस्टर पर हाज़िरी लगानी है मौत वाले दफ़्तर में छुट्टियाँ नहीं होतींजो ज़मीर रख आए जेब में पड़ोसी की उनसे देशभक्ति की गलतियाँ नहीं होतीं कर्म के मुताबिक ही फल मिलेगा इंसां को आम वाले पेड़ पर भिण्डियाँ नहीं होतींनाम में शहीदों के डिग्रियाँ नहीं होतींबदनसीब हाथों में चूड़ियाँ नहीं होतीं बूँद में समन्दर को जिसने पा लिया ‘हुल्लड़’साहिलों से फिर उसकी दूरियाँ नहीं होतीं
ज़रूरत क्या थी ?
आईना उनको दिखाने की ज़रूरत क्या थी ? वो हैं बन्दर ये बताने की ज़रूरत क्या थी ?घर पे लीडर को बुलाने की ज़रूरत क्या थीनाश्ता उनको कराने की ज़रूरत क्या थी ?चार बच्चों को बुलाते तो दुआएँ मिलतीं साँप को दूध पिलाने की ज़रूरत क्या थीदो के झगड़े में पिटा तीसरा चौथा बोला आपको टाँग अड़ाने की ज़रूरत क्या थी ?चोर जो चुप ही लगा जाता तो वो कम पिटता बाप का नाम बताने की ज़रूरत क्या थी ?जब पता था कि दिसम्बर में पड़ेंगे ओलेसर नवम्बर में मुड़वाने की ज़रूरत क्या थी ?अब तो रोज़ाना गिरेंगे तेरे घर पर पत्थरआम का पेड़ लगाने की ज़रूरत क्या थी ?जब नहीं पूछा किसी ने क्या थे जिन्ना क्या नहीं ?आप को राय बताने की जरूरत क्या थी ?एक शायर ने ग़ज़ल की जगह गाली पेलीउसको दस पेग पिलाने की ज़रूरत क्या थी ?दोस्त जंगल में गया हाथ गवाँकर लौटाशेर को घास खिलाने की ज़रूरत क्या थी ?
सारे बन्दर आजकल
शायरों को मिल रहे हैं ढेरों पत्थर आजकल क्योंकि मँहगे हो गए हैं अण्डे आजकलगद्य में भी चुटकले हैं पद्य में भी चुटकलेरो रहा है मंच पर ह्युमर सटायर आजकल इन कुएँ के मेढकों ने पी लिया है पानी सभीडूबकर मरने लगे हैं सब समन्दर आजकलगीत चोरी का सुनाया उसने अपने नाम से रह गया है शायरा का यह करैक्टर आजकलकाटने को दौड़ता है हर दिवस सप्ताह काजब से सर पर चढ़ गया है यह शनीचर आजकलआदमी के ख़ून का प्यासा हुआ है आदमीहँस रहे हैं आदमी पर सारे बन्दर आजकल
हज़ारों मोनिका लाता
ग़रीबी ने किया कड़का, नहीं तो चाँद पर जाता तुम्हारी माँग भरने को सितारे तोड़कर लाताबहा डाले तुम्हारी याद में आँसू कई गैलनअगर तुम फ़ोन न करतीं यहाँ सैलाब आ जातातुम्हारे नाम की चिट्ठी तुम्हारे बाप ने खोली उसे उर्दू जो आती तो मुझे कच्चा चबा जाता तुम्हारी बेवफाई से बना हूँ टाप का शायरतुम्हारे इश्क में फँसता तो सीधे आगरा जाता ये गहरे शे’र तो दो वक़्त की रोटी नहीं देते अगर न हास्य रस लिखता तो हरदम घास ही खाता हमारे चुटकुले सुनकर वहाँ मज़दूर रोते थे कि जिसका पेट खाली हो कभी भी हँस नहीं पाता मुहब्बत के सफर में मैं हमेशा ही रहा वेटिंगकिसी का साथ मिलता तो टिकट कन्फर्म हो जाता कि उसके प्यार का लफड़ा वहाँ पकड़ा गया वर्नानहीं तो यार ये क्लिंटन हज़ारों मोनिका लाता
मुल्क तो इनका मकां है साथियो
ना यहाँ है ना वहाँ है साथियोआजकल इंसां कहाँ है साथियोआम जनता डर रही है पुलिस से चुप यहाँ सब की जबाँ है साथियोपार्टी में हाथ है हाथी कमलआदमी का क्या निशां है साथियोलीडरों का एक्स-रे कर लीजिएझूठ रग रग में रवाँ है साथियोये उठा दें रैंट पर या बेच देंमुल्क तो इनका मकां है साथियो

आंखों देखा पाकिस्तान - कमलेश्वर

वाघा बार्डर के उस पार
यह हम लेखकों के लिए भवनाओं और रोमांच से भरा सफर था, दिल्ली से लाहौर तक का। मौका था सार्क देशों के लेखकों का लाहौर में तीन दिवसीय आयोजन। सार्क के सात देशों के लेखकों-कवियों का दसवाँ सम्मिलन, जो पाकिस्तान की सांस्कृति राजधानी लाहौर से पहली बार हो रहा था। वैसे पिछले नौ सम्मेलनों में पाकिस्तानी प्रतिनिधी लगातार सामिल हुए थे लेकिन भारत-पाक के बीच फैली राजनीतिक खटास और जहरीले माहौल के कारण पाकिस्तानी लेखकों-शायर भारत की सरजमीं से होकर नहीं गुज़र पाते थे, क्योंकि हवाई, रेल और बस सेवाएँ राजनीतिक विद्वेष और दुश्मनी के कारण बन्द थीं। पिछला जो लेखक सम्मेलन मालदीव में हुआ था, उसमें शामिल होने के लिए पाकिस्तानी राजनीतिक रूप से एक-दूसरे के घनघोर शत्रु थे, भारत की दस लाख सेना युद्ध के लिए तैयार और तत्पर सरहद पर तैनात थी, तब भी भारत और पाकिस्तानी लेखकों के पास भावनाओं और भाई-चारे का भंडार था। लगता ही नहीं था कि हम दो दुश्मन देशों के लेखक आमने-सामने मौजूद हैं यह भावनाएँ राष्ट्र और देशों की सरहदें स्वीकार नहीं करतीं। लाहौर में आयोजित इस दसवें लेखक सम्मेलन का आयोजन अकादमी ऑफ फाइन आर्टस एण्ड लिटरेचर की ही आधिकारिक संस्था फाउण्डेशन आफ सार्क राइटर ने किया था, जिसके पीछे पंजाबी-हिन्दी की जुनूनी लेखिका अजीत कौर की लगन, भावनाएँ और दिमाग लगातार काम कर रहा है। यह लेखिका दक्षिण एशिया में भाई-चारे, शान्ति और सद्भावना के लिए पिछले सत्ताइस वर्षों से सूफ़ी दरवेश की तरह सिर्फ अपने चरम लक्ष्य के लिए पागल हो चुकी है। और घर फूँक तमाशा देख रही है। इसे कहीं से पैसा नहीं मिलता तो यह अपनी बेटी विश्व प्रसिद्ध पेण्टर अपर्णा कौर की कलाकृतियों से आया पैसा इस साहित्यिक-सांस्कृतिक अभियान में झोंकती रहती है, लेकिन साहित्यिक सेतु बनाने से बाज़ नहीं आती। तो छह देशों-नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीप और भारत के लेखन दिल्ली में जमा हुए और सातवें सदस्य देश पाकिस्तान के सफर पर चले पड़े। और यह इत्तफाक ही था कि लगभग पन्द्रह वर्षों बाद 10 मार्च को भारत की क्रिकेट टीम पाकिस्तान दौरे पर गई थी और हम लेखकों का जत्था 11 मार्च को पाकिस्तान के लिए रवाना हुआ। वे हवाई रास्ते से गए थे, हम पैदली रास्ते से जा रहे थे। क्रिकेट टीम के लिए हार जीत का खतरा तो था पर जान-जोखिम का कोई मसला नहीं था। यह था। तो सिर्फ राजनीतिक करतूतों और झूठे अहंकार के कारण, मानव-विरोधी रुख अपनाने वाले क्षुद्र नेताओं की वजह से हम लेखकों को कोई खतरा नहीं था। क्योंकि हमारे पास नानक, बुल्ले शाह और वारिस शाह के वह शब्द थे, जिनके हम वारिस हैं ! तो वाघा बार्डर से गुजराती हमारा पैदली सफर शुरू हुआ। नई दिल्ली से अमृतसर के लिए हम सब लेखक शताब्दी से रवाना हुए। पानीपत, कुऱुक्षेत्र अम्बाला और लुधियाना क्रास किया। अम्बाला पहुँचने के पहले ट्रेन-परिचारिका ने बताया कि यह शहर भारतीय सेना और वायु सेना की बहुत बड़ी छावनी है। दिल को धक्का-सा लगा कि क्या अम्बाला की और कोई पहचान नहीं ? खैर.... इस झटके के बाद लुधियाना और फगवाड़ा क्रॉस करते ही सतलज नदी की धार दिखी और मन इतिहास और भूगोल की ओर मुड़ गया। साथ बैठे थे हिन्दी और पंजाबी के प्रखर युवा लेखक बलबीर माधोपुरी। वे पंजाब में रचे-बसे हैं। तरह-तरह की गहरी सांस्कृतिक स्मृतियों में वे डूबे हुए थे। जालंधर से गुजर कर ट्रेन अमृतसर की ओर बढ़ी और हमने व्यास दरिया पार किया तो बलरवीर ने कहा-शायद लाहौर जाते रवी दरिया भी दिखाई दे जाए....रावी का नाम आते ही तमाम ऐतिहासिक स्मृतियाँ कौंधने लगीं। भगतसिंह, भगवतीयचरण, चन्द्रशेखर, यशपाल जैसे क्रान्तिकारियों की यादें और रावी किनारे ली गयी पं. नेहरू की सम्पूर्ण स्वराज की शपथ..और सैकड़ों यादें। पंजाब के खेतों में कोई पंजाबी या सरदार किसान काम करता नहीं दिखाई दिया। पूछा तो बलवीर माधोपुरी ने तफसील से बताया कि इस उपजाऊ इलाके को व्यास नदी ही सींचती रही है, लेकिन अब धरती का जलस्तर बहुत गिरा हुआ है। पहले 10-12 फुट पर पानी मिल जाता था। अब 40-50 फुट पर। यह तो हमारी हरित क्रान्ति का अग्रदूत और अन्न का गोदाम था। यहाँ आई खुशहाली ने पंजाबी किसान को बहुत एय्यार और आराम तलब बना दिया है.....अब वे लस्सी नहीं, रम पीते हैं और ट्रेक्टर लेकर मौज मस्ती के लिए शहरों में जाते हैं। और मक्की दी रोटी और सरसों द साग नहीं मुर्गें-शुर्गे खाते हैं। उनके खेतों में बिहार और यू. पी. का मजदूर काम करता है। वह सरदार हो गया है, वह वाहे गुरु को मानता और गुरुवानी सुनता है, उसके बच्चे पढ़ते हैं, पंजाबी-सरदारों के बच्चे अंग्रेजी पढ़ते हैं...वे जमीन के मालिक जरूर हैं पर किसानी नहीं करते, इसलिए अब पंजाब की उपज लगातार गिर रही है ! आखिर हम अमृतसर में दोपहर का खाना खाकर, सीमा पर बसा आखिरी गाँव अटारी पार करके वाघा बार्डर पर पहुँचते हैं। मजदूरों की फौज मौजूद थी। वह सरों पर सारा सामना उठा लेते हैं और हम भारतीय कस्टम पार करके पाकिस्तान की सीमा वाले हिस्से में दाखिल होते हैं। उसी तरह पाकिस्तान मजदूरों की फौज। सामान की अदला-बदली होती है.....मजदूरों की वही गरीब जमात। दोनों समान की अदला-बदली करते हैं। तो भारत को जवान मजदूर पाकिस्तान के बूढे़ मजदूर को हलका सामान थमाता है। तब दिल पूछता है, कहाँ है बँटवारे की रैडक्लिक लाइन जो हम दोनों को अलग करती है ? मजदूरों के दिलों पर तो कोई लाइन नहीं है। वे चाहे इधर हो या उधर, वे अपनी गरीबी और बड़े-बूढ़ों को पहचानते हैं....हम पाकिस्तानी कस्टम से गुजरते हैं। करैंसी बदलते हैं। सौ रुपये के एक सौ पच्चीस पाकिस्तानी रुपये। वही पानी, वही पसीना, वही हवा और आसमान, वही घास और पेड़। सीमा के दोनों ओर से बिना पासपोर्ट और बीसा के आती जाती चिड़ियां और भावनाओं का खामोश सैलाब। कहाँ थी सरहदें ! और उस पार खड़े पाकिस्तानी दोस्त-लेखकों का उमड़ता हुआ जज्बाती सैलाब। हमारा इन्तजार करती किश्वर नाहीद, इन्तजार हुसैन, मुन्नू भाई, कुछ नौजवान लेखक और पत्रकार। गुलाब के फूलों की मालाएँ और गेंदों के फूलों की बारिश। ढोल-ताशों का वही स्वर...शान्ति के लिए सरहद पर छोड़े गए कपोत ! कौन किस तरफ उड़ गया, पता ही नहीं चला। पर वे अपने पंखों के साथ शब्द की तरह आजाद थे।लेखक सम्मेलन में बहुत जरूरी बातें हुईं। उन्हें विस्तार से बाद में लिखूँगा। सिर्फ यहाँ दो उद्धरण देना काफ़ी होगा। मैं 86 वर्षीय अहमद कासिमी साहब से उनकी पत्रिका ‘फनून’ के कार्यालय में मिला। वे पिछले दिन ही अस्पताल से आए थे। उनके कार्यालय में ग़ालिब, जिन्ना साहब और इकबाल की तस्वीरें लगी थीं। वे बोले- मजहब जो कर सकता था, उसके उसने कर दिखाया, अब मजहबी पहचान से ज्यादा इंसानी पहचान की जरूरत है, जो अदब हमेशा से पैदा करता रहा है। और मुन्नू भाई ने आखिरी शाम मज़ाक में कहा-हमारे यहाँ तो बस छावनी कल्चर बची है और फौजी व्यूरोक्रेसी। यह अंग्रेजों की देन है। पाकिस्तानी फौज चार बार पाकिस्तान को जीत चुकी है....पर वे बुल्लेशाह, वारिसशाह और नानक के खानदानों को नहीं जीत पाई है....अपने सियासी हिन्दू हुक्मरानों से कहिएगा कि वे यह गलती न करें। वे तुलसीदास, मीराबाई, रसखान और अमीर खुसरो के खानदान को नहीं जीत पाएँगे !....और यह अकस्मिक नहीं था कि लाहौर क्रिकेट मैच में राष्ट्रपिता मुशर्रफ के साथ जिन्ना साहब के भारतीय वंशज नुसली वाड़िया बैठे हुए थे और हमारे लेखक सम्मेलन में इक़बाल के बेटे जावेद इक़बाल शामिल थे।
जिये पाकिस्तान
तो हम 11 मार्च, 2004 की शाम को लाहौर पहुँच गए। वाघा बॉर्डर के रास्ते सारे भारतीय व अन्य लेखक नहीं आए थे। अधिकांश हवाई रास्ते से आनेवाले थे। हम कुछ लोगों ने यही रास्ता चुना था। हमारा जत्था पंद्रह-बीस लेखकों का था जिसमें हिंदी, उर्दू, पंजाबी और अग्रेंजी के मिले-जुले लेखक थे। हमारे जत्थे में नामवर सिंह, कुँवर नारायण, अशोक वाजपेयी, शमीम हनफी, बलबीर माधोपुरी आदि थे। वाघा बॉर्डर से आधे घण्टे में हम लाहौर पहुँच गए। होटल सनफोर्ट, गुलबर्ग में हमें ठहराया गया। वहाँ भी ढोल-ताशे से स्वागत किया गया। कमरा नम्बर 127 में, मैं और कुँवर नारायण एक साथ ठहरे। होटल साफ-सुथरा आरामदेह था। पाकिस्तान को कई बार कई तरह से याद करना पड़ता है, क्योंकि एक बार के अनुभव आपको इस मुल्क की आत्मा तक नहीं पहुँचा सकते। मैं पिछली यात्राएँ याद करूँ तो पाकिस्तान एक रुका हुआ पर बहुत तेजी से भागता हुआ देश है। सन् साठ-सत्तर अस्सी के पाकिस्तान को याद करता हूँ तो सन् साठ के पाकिस्तान में बहुत कठमुल्ले किस्म के मुसलमान नहीं थे, पर वह अपनी इस्लामी पहचान को स्थापित करना चाहता था। भारत विभाजन के बाद जो मुसलमान पाकिस्तान पहुँचे थे, वे यहाँ के स्थानीय मुसलमानों से खुद को बेहतर मुसलमान मानते थे। इसका एक कारण शायद यह भी था कि इस्लामी सोच और उसके उसूलों को तय करने वाले दो आध्यात्मिक केन्द्र- देवबन्द और बरेली भारत में छूट गए थे। ऐसा कोई केन्द्र पाकिस्तान में नहीं था। मुलतान यदि था तो वह सूफी सोच का केन्द्र था, जिसे कट्टर मुसलमान मंजूर नहीं करता। अपनी खास इस्लामी पहचान के लिए जरूरी था कि पाकिस्तान पश्चिम एशिया की तरफ देखना शुरू करे यानि अरब और इस्लामी देशों की ओर। वैसे भी उस दौर का पाकिस्तान खुद को इस्लाम का ज्यादा विशुद्ध और अन्य देशों से बड़ा मजहबी पैरोकार मानता था। भारत से पाकिस्तान गए मुसलमान उन भारतीय मुसलमानों को भी कमतर मुसलमान मानते थे, जो यहीं रह गए थे। वैसे तो पाकिस्तानी सामंत रुका हुआ समाज था जो बदलने से इनकार करता था, पर अपनी पहचान के लिए वह बुरी तरह तरस रहा था और उसे स्थापित करने में वह बेहद जल्दबाजी में था। इसलिए पहचान की स्थापना की। उसने पाकिस्तान को कुछ ऐसी ग़लत और आसान पहचान दी कि ‘पाकिस्तानी’ वह है जो हिन्दुस्तानी नहीं है।’ इस कारनामे को पाकिस्तान के लेखकों-कवियों ने नहीं, वहाँ उभरे नए राजनीतिक बुद्धिजीवी वर्ग ने अंजाम दिया। तो खैर......पाकिस्तान के लेखकों ने हमेशा मूल्य-केंद्रित सवालों को उठाया है, वे अपनी पहचान को लेकर भी परेशान या चिन्तित नहीं हैं। वहाँ के आम आदमी को अगर देखें और उससे भीतर के बारे में कुछ जानना चाहें तो वहाँ का साधारण जन दो बातें जानता है। एक तो कश्मीर और दूसरा हिन्दू। वह मानकर चलता है कि पार्टीशन हिन्दुओं की वजह से हुआ और कश्मीर को भारत के हिन्दुओं ने जबरजस्ती दबा रखा है। उन्हें नहीं मालूम कि भारत में मुसलमान भी रहते हैं और उनकी संख्या उनके देश की जनसंख्या से ज्यादा है। उनके लिए हिन्दू एक रहस्य है। मुझे देखकर लाब लहौर के एक खच्चरवाले ने तीन बार पूछा-आप हिन्दू हो ? क्या बाकी हिन्दू भी ऐसे होते हैं ? जो लोग भारत से वहाँ गए हैं, वे हिन्दू को जानते-पहचानते हैं पर ब्राह्मण फोबिया से बुरी तरह ग्रस्त हैं उनके लिए हिन्दू का मतलब है ब्राह्मण या बनिया। उनकी नजर में दोनों ही बड़े कमीने लोग हैं चालाक भी और बदमाश भी। असल में काफी हद तक यह पाकिस्तानी पाठ्यक्रम का दोष है। वहाँ भारत और हिन्दू-सिक्खों के बारे में जो पढ़ाया जाता है वह बहुत ही विषैली जानकारियाँ पैदा करता है और उससे भी ज्यादा गंदा दिमागी माहौल बनाता है। जो अधकचरे विद्यार्थी निकलते या छोटे दर्जे पास करके आते हैं। उनके दिमाग पाठ्यक्रम की गलत जानकारियों से भरे रहते हैं। यह दोष उस आम नौजवान पाकिस्तानी आदमी का नहीं, यह दोष उस सिस्टम का है जो भारत विरोधी प्रचार पर पाला गया है। इसमें मुख्य भूमिका पाकिस्तानी फौज की है जिसने बार-बार नागरिक सत्ता हड़प कर, उसके तानाशाह जनरलों ने खुदा को और अपने फौजी एस्टेबलिशमेंट को सत्ता में टिके रहने और आराम-ऐय्याशी की जिन्दगी के गुजरने के औचित्य को वैध बनाने और खुद को जरूरी साबित करने के लिए भारत विरोधी और नफरत की भट्टियाँ गरम रखी हैं। पाकिस्तान के लेखकों और कुछ महत्त्वपूर्ण पत्रकारों ने इस फौजी जहनियत और पढ़ाए जानेवाले पाठ्यक्रम का हमेशा खुला और पुरजोर विरोध किया है, पर उनकी आवाज कब कारगर नहीं हो सकी। एक प्रसंग यहाँ याद आता है। अपने मशहूर शायर शहरयार साहब के छोटे भाई और उनका परिवार पाकिस्तान चला गया है। वह परिवार कराची में रहता है। अपने शहरयार साहब काफी बरसों के बाद छोटे भाई और बाल-बच्चों से मिलने कराची गए, तो करीब दस साल के भतीजे ने पूछा था कि आप हिन्दुस्तान में पाजामा-कुर्ता और शेरवानी पहन सकते हैं ? क्या आप वहाँ नवाज पढ़ सकते हैं ? भारत के बारे में जानकारियों का यह स्तर था, एक अपर-मिडिल क्लास में परिवेश पा रहे बच्चे का ! शहरयार साहब उसके ऐसे सवालों से बहुत दुःखी हुए थे कि इन्हें बताओ भी तो कोई कितना बताएगा, कितना और कब तक समझाएगा ? तो यह और ऐसा भारत विरोधी सिस्टम पाकिस्तान में तीन-चार पीढ़ियों हावी रहा है। वैसे पढ़ा-लिखा पाकिस्तान इस हिन्दू-विरोधी और भारत विरोधी प्रचार से ग्रस्त नहीं है, वह बहुत खुले दिलो-दिमाग का मालिक है, पर सन् 1992 में अयोध्या की बाबरी मस्जिद ढहाने के साथ-साथ भारत में जो हिन्दुत्ववाद की लहर चली और बोलबाला हुआ है, उससे पाकिस्तान का पढ़ा-लिखा वर्ग चिन्तित रहा है। गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार के बाद तो पाकिस्तानी का मूड बहुत उखड़ा हुआ है। हालाँकि वे जानते और मानते हैं कि यह घोर अमानवीय कृत्य गुजरात के हिन्दुत्ववादी मुख्यमन्त्री नरेंद्र मोदी ने करवाया है, और वे इसे लेकर असहज हैं। हालांकि पाकिस्तानी पढ़े-लिखे तबके का भरोसा भारत के सेकुलर हिन्दुओं पर है, और वे जानते हैं कि भारत का सेकुलर हिन्दू इन तास्सुबी हिन्दुत्वादियों से लगातार लोहा ले रहा है, पर गुजरात के मुसलमानों के नरसंहार को लेकर उसका मन बेहद शंकित और उदास हो जाता है। वह निश्चय ही उसे ब्राह्मण हिन्दु का कारनामा मानता है, जो उसकी निगाह में विभाजन का असली जिम्मेदार है क्योंकि उनके ख्याल से उन्हीं ब्राह्मण ने भारत के मुसलमानों को नीचा और हेय मानकर बँटवारे के हालात पैदा किए थे। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो भारत के सेकुलर चरित्र को मात्र दिखावा या मुखौटा मानते हैं हालाँकि वे खुद को लगातार ‘बेहतर पाकिस्तानी मुसलमान’ साबित करना चाहते हैं पर भारत से यह तवक्कों रखते हैं कि वह सेकुलर बना रहे और उसे सेकुलर ही होना चाहिए। उन्हें लगता है कि उन्हें सेकुलर होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि पाकिस्तान में रहते हुए उन्हें इस समाज-सांस्कृतिक मूल्य की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। पाकिस्तान असेम्बली (संसद) के एक सदस्य हैं-जनाब मन्नू भंडार। वे पारसी हैं पर सारे व्यवहारिक कारणों से उन्हें हिन्दू ही माना जाता है। उनकी ब्रुएरीज हैं यानी शराब और खासतौर से बीयर बनाने के करखाने ! इस्लामिक देश की वजह से पकिस्तान में सख्त शराब-बन्दी है पर सच्चाई यह है कि पाकिस्तान शराब में नहाता है। हालाँकि हमसे कहा गया कि मैं पाकिस्तान में शराब का परमिट बनवा लूँ क्योंकि हिन्दुस्तानी के लिए शराब पर पाबन्दी नहीं है, पर सच पूछिए तो लाहौर में परमिट की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। होटल में ही हम मेहमानों के लिए कमरे में शराब की पूरी सप्लाई रखी हुई थी। यह किश्वर नाहीम साहिबा का इन्तज़ाम था कि भारत का कोई लेखक प्यासा न रह जाए। फिर भी परमिट का सिस्टम जानने के लिए मैंने होटल सनफोर्ट में एक कारिन्दे से निवेदन किया।उसने एक फार्म लाकर दिया जिसमें मुझे अपने पासपोर्ट के मुताबिक विदेशी होने का प्रमाण देना था। मुल्क वाले कॉलम में मैंने इण्डियन लिख दिया, तो होटलवाले ने ‘गुजारिश’ की मैं इण्डियन-हिन्दू लिख दूँ, क्योंकि भारतीय मुसलमान होने का खामियाजा भुगतना पड़ता है। मैंने होटलवाले से कहा कि ‘हिन्दू’ न लिखूँ तो क्या परमिट नहीं मिलेगा ? उसने कहा जी हाँ हिन्दू या क्रिश्चियन लिखना ज़रूरी है। तो शराब लेकर यह पाखण्ड है पाकिस्तान में। तो मन्नू भण्डारा साहब के यहाँ, वहीं लाहौर में सारे भारतीय पाकिस्तानी लेखकों की शराब की दावत थी। उसमें हिन्दू-मुसलमान का कोई भेद-भाव नहीं था। तरह-तरह की शराबें मौजूद थीं, उन ब्राण्ड्स के अलावा जो मन्नू भण्डारा के कारखानों में ‘सिर्फ’ एक्सपोर्ट मार्केट के लिए बनती थीं। और तो और एक शाम तो होटल सनफोर्ट में ही एक साहब ने हमें सभी भारतीयों को दारू की दावत पर आमन्त्रित किया था। बीच-बीच में भाई अहमद फराज के फोन आते थे- यहीं आ जाइए मेरे होटल में.....वहाँ तो कच्ची ही होगी, यहाँ स्कॉच है। मन्नू भण्डार के यहाँ ही बातचीत के दौरान पता चला कि कराची-सिन्ध में काफी हिन्दू हैं और बेखटके रहते हैं। हिन्दू हैं और बेखटके रहते हैं। वह पार्टीशन के दिनोंवला गैर-इंसानी-मजहबी जुनून अब नहीं है। वे अपने घरों में हिन्दू हैं, पूजा पाठ करते हैं, अगर पार्टीशन के वक्त ढहाए जाने से बच गए हैं तो वे उन मन्दिरों में भी जाते हैं और जैसा कि जिन्ना साहब ने पाकिस्तान बनने के वक्त कहा था। अपने मजहब को कोई भी मानता रहे, पर सिविक लाइफ में पाकिस्तानी है, तो घर में सिन्धी हिन्दू भी हिन्दू है पर बाहर वह पाकिस्तानी है ! नामों में ज़रूर फर्क आया है। यहाँ हिन्दुओं के नाम न्यूट्रल से हो गए हैं, जैसे क्रिकेट प्लेयर कनेरिया हिन्दू है, उसका नाम दानिश वहाँ की कल्चर से मेल खाता है। नहीं तो उसका नाम दिनेश कनेरिया भी हो सकता था। इस मसले पर वहीं की पाकिस्तानी दोस्त ने टिप्पणी की कि जैसा कि आजकल आपके मुल्क में हिन्दुत्वादी चाह रहे हैं, वे हिन्दू कल्चर के रंग में सबको रंग देना चाहते हैं कुछ वैसा ही जुनूनी दौर पार्टीशन के वक्त यहाँ चला था.... मुश्किल यह थी कि कल्चर के दबाव में आदमी और उसके कुनबे के नाम तो बदले जा सकते थे, वह तो हुआ, पर नीम, पीपल, आम वगैरह पर कल्चर का असर नहीं पड़ा, वे नाम वैसे ही हैं। यहाँ तक कि ईसाइयों को, जिनके रिश्ते मुसलमानों से बहुत नजदीकी थे, ताजा इस्लाम के झोंकों में उन्हें भी जोसेफ से यूसुफ बनना पड़ा। कश्मीर को लेकर तो अच्छे-से-अच्छा पढ़ा-लिखा पाकिस्तानी भी भारत और भारत के नेताओं और चालाक ब्राह्मणों से बहुत नाराज है। वे यह भी मानते हैं कि इसकी वजह से पाकिस्तान के फंडामेण्टलिस्टों-जेहादियों को शह मिल गई है। बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात में मुस्लिम नर-संहार के बाद वहाँ के समझदार तबकों को खामोश होना पड़ा है। वैसे एक महीन बात मैं यहाँ ज़रूर दर्ज कर देना चाहूँगा कि सरकार में बैठा छोटा और बड़ा बाबू तब मन ही मन खुश होता है जब भारत से हिन्दू-मुसलमान दंगों की खबरें वहाँ पहुँचती हैं। सही बात यह है कि आम आदमी तो नहीं, लेकिन वह फौजी, जो फौजी फौज की वर्दी उतारकर सिविल पोशाक में आ चुका है और सरकारी महकमें चलाता है, वह हर उस बात को महत्त्वपूर्ण समझता, बताता और मानता है जो पाकिस्तान के निर्माण को तार्किक मजबूती देता है। जो मुसलमान वहाँ सदियों से मौजूद है और जिसने विभाजन और विस्थापन का अनुभव किया नहीं किया है, वह समझ ही नहीं पाता कि पाकिस्तान आखिर क्यों बना है ? सच पूछिए तो उसे कश्मीर से भी कुछ खास लेना-देना नहीं है। भीतरी इलाकों का पाकिस्तानी-सिन्धी तो कश्मीर विवाद से परिचित भी नहीं है। भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों को लेकर एक असलियत को समझना बहुत जरूरी है। अपने इन दोनों देशों के बीच जो मसले और कड़वाहट है या रही है वह खासतौर से सरकारी, फौजी, भारत से गए मुसलमानों, सरकारी अमलों, राजनेताओं और धार्मिक जमातों के कठमुल्लों के कारण ज्यादा है अन्यथा औसत पाकिस्तानी के दिलो-दिमाग में हिन्दुओं और हिन्दुस्तानियों के लिए नफरत नहीं है। अगर औसत और आम पाकिस्तानी के दिल पर हाथ रखकर पूछिए तो वह ईस्ट पाकिस्तान के बंगला देश बन जाने से नाराज नहीं है। बांग्लादेश बनने और वहाँ शर्मनाक शिकस्त खाने से पाकिस्तान का पुराना फौजी बहुत नाराज है। उस पुराने फौजी ने ईस्ट पाकिस्तान में हुई हार के जख्मों के लिए आज भी भारतीय फौज को माफ नहीं किया है जिसके सामने उसे ढाका में हथियार डालने पड़े थे और उन बंगालियों की वजह से भारतीय फौज के सामने शर्मशार होना पड़ा था, जो उनकी नजर में दोयम के पाकिस्तानी थे।असल में पाकिस्तानी का तीन पीढ़ी पहले का मुलसमान आज भी खुद को भारत या बंगाल के मुसलमानों से ज्यादा बेहतर मुसलमान समझता है, पर पाकिस्तान में अब ऐसे मुसलमानों की वह पीढ़ी तो खत्म हो चुकी या हो रही है जो सिर्फ इस्लाम के नाम पर अपने को दूसरों से ज्यादा शुद्ध या बेहतर मुसलमान मानती थी। बंगाल के मुसलमान को लेकर उनके या नयी पीढ़ी के मुसलमान के दिल में अब कोई मलाल नहीं है। असल में देखा जाए तो उनके लिए पार्टीशन के बाद, अब पंजाब का हिन्दू उस बंगाली मुसलमान से कहीं ज्यादा नजदीक और अपना है, क्योंकि बंगला भाषा और संस्कृति से उनका सामना नहीं पड़ा था। मुस्लिम अक्सरियत का सिद्धान्त नाकाम हो गया था। पाकिस्तान की कोई स्मृति आम पाकिस्तानी को नहीं है। पराजय और देश टूटने की वह स्मृति फौजी तन्त्र और खुर्राट सरकारी अफसरों को है, इसे लेकर वे भारत का विरोध करते हैं।

मानसरोवर 8

खून सफेद
चैत का महीना था, लेकिन वे खलियान, जहाँ अनाज की ढेरियाँ लगी रहती थीं, पशुओं के शरणस्थल बने हुए थे, जहाँ घरों से फाग और बसंत की अलाप सुनाई पड़ती, वहाँ आज भाग्य का रोना था। सारा चौमासा बीत गया पानी की एक बूँद न गिरी। जेठ में एक बार मूसलाधार वृष्टि हुई थी, किसान फूले न समाये, खरीफ की फसल बो दी, लेकिन इन्द्रदेव ने अपना सर्वस्य शायद एक ही बार लुटा दिया था। पौधे उगे बड़े और सूख गये। गोचर भूमि में घास न जमी ! बादल आते, घटाये उमड़ती, ऐसा मालूम होता कि जल-थल एक हो जायेगा, परन्तु वे आशा की नहीं, दुःख की घटायें थीं। किसानों ने बहुतेरे जप-तप किये, ईट और पत्थर देवी और देवताओं के नाम से पुजाये, बलिदान किये, पानी की अभिलाषा में रक्त के प्याले बह गये, लेकिन इंद्रदेव किसी तरह न पसीजे। न खेतों में पौधे थे, न गोचरों में घास, न तालाबों में पानी, बड़ी मुसीबत का सामना था। जिधर देखिए धूल उड़ रही थी। दरिद्रता और क्षुधा-पीड़ा के दारुण दृश्य दिखायी देते थे। लोगों ने पहले तो गहने और बर्तन गिरवी रखे और अंत में बेच डाले। फिर जानवरों की बारी आयी और जब जीविका का अन्य कोई सहारा न रहा तब जन्मभूमि पर जान देने वाले किसान बाल-बच्चों को लेकर मजदूरी करने निकल पड़े। अकाल-पीडितों की सहायता के लिए कहीं-कहीं सरकार की सहायता से काम खुल गया था। बहुतेरे वहीं जाकर जमे। जहाँ जिसको सुभीता हुआ, वह उधर ही जा निकला।
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संध्या का समय था। जादोराय थका-माँदा आकर बैठ गया और स्त्री से उदास होकर बोला- दरखास्त नामंजूर हो गयी। यह कहते-कहते वह आंगन में जमीन पर लेट गया। उसका मुख पीला पड़ रहा था और आँते सिकुड़ी जा रही थीं। आज दो दिन से उसने दाने की सूरत नहीं देखी। घर में जो कुछ विभूति थी—गहने, कपड़े, बर्तन-भाड़ें सब पेट में समा गए। गाँव का साहूकार भी पतिव्रता स्त्रियों की भाँति आँखें चुराने लगा। केवल तकाबी का सहारा था, उसी के लिए दरख्वास्त दी थी, लेकिन आज वह भी नामंजूर हो गई, आशा का झिलमिलाता हुआ दीपक बुझ गया।देवकी ने पति को करुण दृष्टि से देखा। उसकी आँखों में आँसू उमड़ आये। पति दिन-भर का थका-माँदा घर आया है। उसे क्या खिलावे ? लज्जा के मारे वह हाथ-पैर धोने के लिए वह पानी भी न लायी। जब हाथ-पैर धोकर आशा-भरी चितवन से वह उसकी ओर देखेगा तब वह उसे क्या खाने को देगी ? उसने आज कई दिन से दाने की सूरत नहीं देखी थी। लेकिन उस समय उसे जो दुख हुआ, वह, वह क्षुधातुरता के कष्ट से कई गुना अधिक था। स्त्री घर की लक्ष्मी है। घर के प्राणियों को खिलाना-पिलाना वह अपना कर्तव्य समझती है। और चाहे यह उसका अन्याय ही क्यों न हो, लेकिन अपनी दीन-हीन दशा पर जो मानसिक वेदना उसे होती है, वह पुरुषों को नहीं हो सकती। हठात् उसका बच्चा साधो नींद से चौंका और मिठाई के लालच में आकर वह बाप से लिपट गया। इस बच्चे ने आज प्रातः काल चने की रोटी का एक टुकड़ा खाया था और तब से कई बार उठा और कई बार रोते-रोते सो गया। चार वर्ष का नादान बच्चा, उसे वर्षा और मिठाईयों में कोई सम्बन्ध नहीं दिखाई देता था। जादोराय ने उसे गोद में उठा लिया, उसकी ओर दुःख भरी दृष्टि से देखा। गर्दन झुक गयी और हृदय की पीड़ा आँखों में न समा सकी।
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दूसरे दिन यह परिवार भी घर से बाहर निकला। जिस तरह पुरुषों के चित्त से अभिमान और स्त्री की आँख से लज्जा नहीं निकलती, उसी तरह अपनी मेहनत से रोटी कमाने वाला किसान भी मजदूर की खोज में घर से बाहर नहीं निकलता। लेकिन पापी पेट, तू सब कुछ करा सकता है ! मान और अभिमान, ग्लानि और लज्जा ये सब चमकते हुए तारे तेरी काली घटाओं में छिप जाते हैं। प्रभात का समय था। दोनों विपत्ति के सताये घर से निकले। जादोराय ने लड़के को पीठ पर लिटा लिया। देवकी ने फटे-पुराने कपड़ों की गठरी सिर पर रखी। जिस पर विपत्ति को भी तरस आता। दोनों की आँखें आँसुओं से भरी थीं। देवकी रोती थी। जादोराय चुपचाप था। गाँव के दो-चार आदमियों से रास्ते में भेंट भी हुई, किंतु किसी ने इतना भी न पूछा कि कहाँ जाते हो ? किसी के हृदय में सहानुभूति का वास न था। जब ये लालगंज पहुँचे, उस समय सूर्य ठीक सिर पर था। देखा मीलों तक आदमी ही आदमी दिखाई देते थे। लेकिन हर चेहरे पर दीनता और दुख के चिह्न झलक रहे थे। बैसाख की जलती हुई धूप थी। आग के झोंके जोर-जोर से लहराते हुए चल रहे थे। ऐसे समय में हड्डियों के अगणित ढाँचे जिनके शरीर पर किसी प्रकार का कपड़ा न था, मिट्टी खोदने में लगे हुए थे। मानो वह मरघट भूमि थी। जहाँ मुर्दे अपने हाथों अपनी कब्रें खोद रहे थे। बूढ़े और जवान, मर्द और बच्चे, सब ऐसे निराश और विविश होकर काम में लगे हुए थे मानो मृत्यु और भूख उनको सामने बैठे घूर रही है। इस आफत में न कोई किसी का मित्र था न हितू। दया, सहृदयता और प्रेम ये सब मानवीय भाव हैं। जिनका कर्त्ता मनुष्य है। प्रकृति ने हमको केवल एक भाव प्रदान किया है और वह स्वार्थ ईश्वरप्रदत्त गुण कभी हमारा गला नहीं छोड़ता।
4
आठ दिन बीत गये थे। संध्या समय काम समाप्त हो चुका था। डेरे से कुछ दूर आम का एक बाग था। वहीं एक पेड़ के नीचे जादोराय और देवकी बैठी हुई थी। दोनों ऐसे कृश हो रहे थे कि उनकी सूरत नहीं पहचानी जाती थी। अब स्वाधीन कृषक नहीं रहे। समय के हेरफेर से आज दोनों मजबूर बने बैठे हैं। जादोराय ने बच्चे को जमीन पर सुला दिया। उसे कई दिन से बुखार आ रहा है। कमल-सा चेहरा मुरझा गया। देवकी ने धीरे से हिला कर कहा- बेटा ! आँखें खोलो। देखो साँझ हो गयी। साधो ने आँखें खोल दीं, बुखार उतर गया था। बोला-क्या हम घर आ गये माँ ? घर की याद आ गयी। देवकी की आँखें डबडबा आयीं। कहा-नहीं बेटा ! तुम अच्छे हो जाओगे, तो घर चलेंगे। उठकर देखो, कैसा अच्छा बाग है।साधो मां के हाथों के सहारे उठा और बोला—माँ ! मुझे बड़ी भूख लगी है, लेकिन तुम्हारे पास कुछ तो नहीं है। मुझे खाने को क्या दोगी ?देवकी के हृदय में चोट लगी, पर धीरज धर के बोली –नहीं बेटा, तुम्हारे खाने को मेरे पास सब कुछ है। तुम्हारे दादा पानी लाते हैं तो मैं अभी नरम-नरम रोटियाँ बनाए देती हूँ।साधो ने मां की गोद में सिर रख लिया और बोला—माँ ! मैं न होता तो तुम्हें इतना दुख तो न होता। यह कहकर वह फूट-फूट कर रोने लगा। यह वही बे समझ बच्चा है, जो दो सप्ताह पहिले मिठाइयों के लिए दुनिया सिर पर उठा लेता था। दुःख और चिंता ने कैसा अनर्थ कर दिया है। यह विपत्ति का फल है। कितना दुख पूर्ण, कितना करूणाजनक व्यापार है।इसी बीच में कई आदमी लालटेन लिए हुए वहाँ आए। फिर गाड़ियाँ आयीं। उन पर डेरे और खेमें लदे हुए थे। दम के दम वहाँ खेमे गड़ गए। सारे बाग में चहल-पहल नजर आने लगी। देवकी रोटियाँ सेंक रही थी, साधो धीरे-धीरे उठा और आश्चर्य से देखता हुआ डेरे के नजदीक जाके खड़ा हो गया !
5
पादरी मोहनदास खेमे से बाहर निकले तो साधो उन्हें खड़ा दिखाई दिया। उसकी सूरत पर उन्हें तरस आ गया। प्रेम की नदी उमड़ आयी। बच्चे को गोद में लेकर खेमे में एक गद्देदार कोच पर बैठा दिया और तब उसे बिस्कुट और केले खाने को दिए लड़के ने अपनी जिंदगी में इन स्वादिष्ट चीजों को कभी नहीं देखा। बुखार की बैचैन करने वाली भूख अलग मार रही थी। उसने खूब मन भर खाया और तब कृतज्ञ नेत्रों से देखते हुए पादरी साहब के पास जाकर बोला-तुम हमको रोज ऐसी चीजें खिलाओगे।पादरी साहब इस भोलेपन पर मुस्कुरा कर बोले मेरे पास इससे भी अच्छी-अच्छी चीजें हैं। इस पर साधोराय ने कहा-अब मैं रोज तुम्हारे पास आऊँगा।उधर देवकी ने रोटियाँ बनायी और साधो को पुकारने लगी। साधो ने माँ के पास जाकर कहा मुझे साहब ने अच्छी-अच्छी चीजें खाने को दी हैं। साहब बड़े अच्छे हैं।देवकी ने कहा मैंने तुम्हारे लिए नरम-नरम रोटियाँ बनायी है। आओ तुम्हें खिलाऊँ।साधो बोला-अब मैं न खाऊँगा। साहब कहते थे कि मैं तुम्हें रोज अच्छी-अच्छी चीजें खिलाऊँगा। मैं अब उनके साथ ही रहा करूँगा। मां ने समझा कि लड़का हँसी कर रहा है। उसे छाती से लगाकर बोली–क्यों बेटा, हमको भूल जाओगे ? देख मैं तुम्हें कितना प्यार करती हूँ।साधो तुतला कर बोला-तुम तो मुझे रोज चने की रोटियाँ दिया करती हो। तुम्हारे पास तो कुछ नहीं है। साहब मुझे केले और आम खिलावेंगे। यह कह कर वह फिर खेमे की ओर भागा और रात को वहीं सो रहा। ! पादरी मोहनदास का पड़ाव वहाँ तीन दिन रहा। साधो दिन भर उन्हीं के पास रहता। साहब ने उसे मीठी दवाइयाँ दीं। उसका बुखार जाता रहा। वह भोले-भाले यह देखकर साहब को आशीर्वाद देने लगे। लड़का भला चंगा हो गया और आराम से है। साहब को परमात्मा सुखी रखे। उन्होंने बच्चे की जान रख ली। चौथे दिन रात को ही वहाँ से पादरी साहब ने कूच किया। सुबह को जब देवकी उठी तो साधो का वहाँ पता न था। उसने समझा, कहीं टपके ढूँढ़ने गया होगा, किंतु थोड़ा देख कर उसने जादोराय से कहा- लल्लू यहाँ नहीं है। उसने भी यही कहा- यहीं कहीं टपके ढूँढ़ता होगा। लेकिन जब सूरज निकल आया और काम पर चलने का वक्त हुआ तब जादोराय को कुछ संशय हुआ। उसने कहा-तुम यहीं बैठी रहना, मैं अभी उसे लिए आता हूँ। जादोराय ने आस-पास के सब बागों को छान डाला और अन्त में जब दस बज गये तो निराश लौट आया। साधो न मिला, यह देख देवकी ढाढ़े मार कर रोने लगी। फिर दोनों अपने लाल की तलाश में निकले। अनेक विचार चित्त में आने-जाने लगे। देवकी को पूरा विश्वास था कि साहब ने उस पर कोई मंत्र डालकर वश में कर लिया। लेकिन जादो को इस कल्पना के मान लेने में कुछ संदेह था। बच्चा इतनी दूर अनजाने रास्ते पर अकेले नहीं आ सकता। फिर दोनों गाड़ी के पहियों और घोड़े के टापों के निशान देखते चले जाते थे। यहाँ तक की वे सड़क पर आ पहुँचे। वहाँ गाड़ी के बहुत से निशान थे। उस विशेष लीक की पहचान न हो सकती थी। घोडे़ के टाप भी एक झाड़ी की तरफ गायब हो गये। आशा का सहारा टूट गया। दोपहर हो गयी थी। दोनों धूप के मारे बैचेन और निराशा से पागल हो गये। वहीं एक वृक्ष की छाया में बैठ गये। देवकी विलाप करने लगी। जादोराय ने उसे समझाना शुरू किया। जब जरा धूप की तेजी कम हुई तो दोनों फिर आगे चले। किंतु अब आशा की जगह निराशा साथ थी। घोड़े के टापों के साथ उम्मीद का धुँधला निशान गायब हो गया था। शाम हो गयी। इधर-उधर गायों-बैलों के झुंड निर्जीव से पड़े दिखायी देते थे। यह दोनों दुखिया हिम्मत हार कर एक पेड़ के नीचे टिक रहे। उसी वृक्ष पर मैना का एक जो़ड़ा बसेरा लिये था। उनका नन्हा-सा शावक आज ही एक शिकारी के चंगुल में फँस गया था। दोनों दिन भर उसे खोजते फिरे। इस समय निराश होकर बैठे रहे। देवकी और जादो को अभी तक आशा की झलक दिखाई देती थी, इसलिए वे बैचेन थे। तीन दिन तक ये लोग खोय हुए लाल की तलाश करते रहे। दाने से भेंट नहीं, प्यास से बेचैन होते तो दो-चार घूँट पानी गले के नीचे उतार लेते। आशा की जगह निराशा का सहारा था। दुख और करुणा के सिवाय और कोई वस्तु नहीं। किसी बच्चे के पैरों के निशान देखते तो उनके दिलों में आशा तथा भय की लहरें उठने लगती थीं। लेकिन प्रत्येक पग उन्हें अभीष्ट स्थान से दूर लिये जाता था।
6
इस घटना को हुए चौदह वर्ष बीत गये। इन चौदह वर्षों में सारी काया पलट गयी। चारों ओर रामराज्य दिखायी देने लगा। इंद्रदेव ने कभी उस तरफ अपनी निर्दयता न दिखायी और न जमीन ने ही। उमड़ी हुई नदियों की तरह अनाज से ढेकियाँ भर चलीं। उजड़े हुए गाँव बस गये। मजदूर किसान बन बैठे और किसान जायदाद की तलाश में नजरें दौड़ाने लगे। वही चैत के दिन थे। खलियानों में अनाज के पहाड़ खड़े थे। भाट और भिखमंगे किसानों की बढ़ती के तराने गा रहे थे। सुनारों के दरवाजे पर सारे दिन और आधी रात तक गाहकों का जमघट बना रहता था। दरजी को सिर उठाने की फुरसत न थी। इधर-उधर दरवाजों पर घोड़े हिनहिना रहे थे। देवी के पुजारियों के अजीर्ण हो रहा था जादोराय के दिन भी फिरे। उसके घर छप्पर की जगह खपरैल हो गया। दरवाजे पर अच्छे बैलों की जोड़ी बँधी हुई है। वह अब अपनी बहली पर सवार होकर बाजार जाया करता है। उसका बदन अब उतना सुडौल नहीं है। पेट पर इस सुदशा का विशेष प्रभाव पड़ा है और बाल सफेद हो चले हैं। देवकी की गिनती भी गाँव की बूढी औरतों में होने लगी है व्यावहारिक बातों में उसकी बड़ी पूछ हुआ करती है। जब वह किसी पड़ोसिन के घर जाती है तो वहाँ की बहुएँ भय के मारे थरथराने लगती हैं। उसके कटु वाक्य, तीव्र आलोचना की सारी गाँव में धाक बाँधी हुई है। महीन कपड़े अब उसे अच्छे नहीं लगते, लेकिन गहनों के बारे में वह इतनी उदासीन नहीं है।

मानसरोवर 7

जेल
मृदुला मैजिस्ट्रेट के इजलास से जानने जेल में वापस आयीं तो उसका मुख प्रसन्न था बरी हो जाने की गुलाबी आशा उसके कपोलों पर चमक रही थी। उसे देखते ही राजनैतिक कैदियों के एक गिरोह ने घेर लिया और पूछने लगीं, कितने दिन की हुई ? मृदुला ने विजय-गर्व से कहा- मैंने तो साफ-साफ कह दिया, मैंने धरना नहीं दिया। यों आप जबर्दस्त हैं, जो फैसला चाहें करें। न मैंने किसी को रोका, न पकड़ा, न धक्का दिया, न किसी से आरजू-मिन्नत ही की। कोई ग्राहक मेरे सामने आया ही नहीं। हाँ, मैं दूकान पर खड़ी जरूर थी। वहाँ कई वालंटियर गिरफ्तार हो गये थे। जनता जमा हो गयी थी मैं भी खड़ी हो गयी। बस, थानेदार ने आकर मुझे पकड़ लिया। क्षमादेवी कुछ कानून जानती थीं। बोली-मैजिस्ट्रेट पुलिस के बयान पर फैसला करेगा। मैं ऐसे कितने ही मुकदमे देख चुकी। मृदुला ने प्रतिवाद किया-पुलिस वालों को मैंने ऐसा रगडा़ कि वह भी याद करेंगे मैं मुकदमें की कार्यवाई में भाग न लेना चाहती थी; मैंने उनसे जिरह करनी शुरू की। सरासर झूठ बोलते देखा, तो मुझसे जब्त न हो सका। मैंने उनसे जिरह करनी शुरू की। मैंने भी इतने दिनों घास नहीं खोदी है। थोडा-सा कानूनन जानती हूँ। पुलिस ने समझा होगा यह कुछ बोलेगी तो है नहीं, हम जो बयान चाहेंगे, देंगे। मैंने जिरह शुरू की तो सब बगलें झाँकने लगे। मैंने तीनों गवाहों को झूठा साबित कर दिया। उस समय जाने कैसे मुझे चोट सूझती गयी। मैजिस्ट्रेट ने थानेदार को दो-तीन बार फटकार भी बतायी। वह मेरे प्रश्नों का ऊल-जलूल जवाब देता था, तो मैजिस्ट्रेड बोल उठता था-वह जो कुछ पूछती हैं, उसका जवाब दो, फजूल की बातें क्यों करते हो तब मियाजी का मुँह जरा-सा निकल आता है। मैंने सबों का मुँह बंद कर दिया। अभी साहब ने फैसला तो नहीं सुनाया, लेकिन मुझे विश्वास है, बरी हो जाऊँगी। मैं जेल से नहीं डरती; लेकिन बेवकूफ भी नहीं बनना चाहती। वहाँ हमारे मंत्रीजी भी थे और-बहुत-सी बहनें थीं। सब यही कहती थी, तुम छूट जाओगी। महिलाएँ उसे द्वेष-भरी आँखों से देखती हुई चली गयीं। उनमें किसी की मियाद साल-भर की थी, किसी की छह मास की। उन्होंने अदालत के सामने जबान ही न खोली थी। उनकी नीति में यह अधर्म से कम न था। मृदुला पुलिस से जिरह करके उनकी नजरों में गिर गयी थी। सजा हो जाने पर उसका व्यवहार क्षम्य हो सकता था; लेकिन बरी हो जाने में तो उसका कुछ प्रायश्चित ही नहीं था। दूर जाकर एक देवी ने कहा-इस तरह तो हम लोग भी छूट जाते। हमें तो यह दिखाना है, नौकरशाही में से हमें न्याय की कोई आशा ही नहीं। दूसरी महिला बोली-यह तो क्षमा माँग लेने के बराबर है। गयी तो थीं धरना देने, नहीं तो दूकान जाने का काम ही क्या था। वालंटियर गिरफ्तार हुए थे आपकी बला से। आप वहाँ क्यों गयीं; मगर अब कहती हैं, मैं धरना देने गयी ही नहीं। यह क्षमा मांगना हुआ, साफ।तीसरी देवी मुँह बनाकर बोलीं-जेल में रहने के लिए बड़ा कलेजा चाहिए उस वक्त तो वाह-वाह लूटने के लिए आ गयीं अब रोना आ रहा है। ऐसी स्त्रियों को तो राष्ट्रीय कामों के नगीच ही नहीं आना चाहिए। आंदोलन को बदनाम करने से क्या फायदा।केवल क्षमादेवी अब तक मृदुला के पास चिंता में डूबी खड़ी थीं। उन्होंने एक उद्दंड व्याख्यान देने के अपराध में साल-भर की सजा पायी थी। दूसरे जिले से एक महीना हुआ यहीं आयी थीं। अभी मियाद पूरी होने में आठ महीने बाकी थे। यहाँ की पंद्रह कैदियों में किसी से उनका दिल मिलता था। जरा-जरा बातों के लिए उनका आपस में झगड़ना बनाव-सिंगार की चीजों के लिए लेडीवार्डरों की खुशामदें करना घरवालों से मिलने के लिए व्यग्रता दिखलाना जो पसंद न था। वही कुत्सा और कनफुसकियाँ जेल के भीतर भी थीं। वह आत्माभिमान, जो उसके विचार में एक पोलिटिकल कैदी में होना चाहिए, किसी से भी न था। क्षमा उन सबों से दूर रहती थी। उनके जाति प्रेम का वारापार न था।एक रंग में पगी हुई थी; पर अन्य देवियाँ उसे घमंडिन समझती थीं और उपेक्षा का जवाब उपेक्षा से देती थी। मृदुला को हिरासत में आये आठ दिन हुए थे। इतने ही दिनों में क्षमा को उससे विशेष स्नेह हो गया था। मृदुला में वह संकीर्णता और ईर्ष्या न थी, न निन्दा करने की आदत, न श्रृंगार की धुन, न भद्दी दिल्लगी का शौक। उसके हृदय में करुणा थी, सेवा का भाव था, देश का अनुराग था। क्षमा ने सोचा था, इसके साथ छह महीने आन्नद से कट जायेंगे; दुर्भाग्य यहाँ भी उसके पीछे पड़ा था। कल मृदुला यहाँ से चली जाएगी ! वह फिर अकेली हो जाएगी। यहाँ ऐसा कौन है ? जिसके साथ घड़ी भर बैठकर अपना दुख-दर्द सुनाएगी, देश-चर्चा करेगी; यहाँ तो सभी के मिजाज आसमान पर हैं। मृदुला ने पूछा-तुम्हें तो अभी आठ महीने बाकी है बहन ! क्षमा ने हसरत के साथ कहा-किसी-न-किसी तरह कट ही जाएंगे बहन ! पर तुम्हारी याद बराबर सताती रहेगी। इसी एक सप्ताह के अन्दर तुमने मुझ पर न जाने क्या जादू कर दिया। जब से तुम आयी हो, मुझे जेल, जेल न मालूम होता था। कभी-कभी मिलती रहना।मृदुला ने देखा, क्षमा की आँखें डबडबायी हुई थीं। ढाढ़स देती हुई बोली-जरूर मिलूँगी दीदी मुझसे तो खुद न रह जाएगा। भान को भी लाऊँगी। कहूँगी-चल, तेरी मौसी आई है, तुझे बुला रही है। दौड़ा आयेगा। अब तुमसे आज कहती हूँ बहन, मुझे यहां किसी की याद थी, तो भान की। बेचारा रोया करता होगा। मुझे देख कर रूठ जायेगा। तुम कहाँ चली गयीं ? मुझे छोड़ कर क्यों चली गयीं ? जाओ मैं तुमसे नहीं बोलता, तुम मेरे घर से निकल जाओ। बड़ा शैतान है बहन ! छन-भर निचला नहीं बैठता, सबेरे उठते ही गाता है-‘झन्ना ऊँता लये अमाला’, छोलाज का मन्दिर देल में है।’ जब एक झंडी कन्धे पर रख कर कहता है-तुम ‘ताली-छलाब पीनी हलाम है’ तो देखते ही बनता है। बाप को तो कहता है-तुम गुलाम हो। वह अँगरेजी कम्पनी में हैं, बार-बार इस्तीफा देने का विचार करके जाते हैं। लेकिन गुजर-बसर के लिए कोई उद्यम करना ही पड़ेगा। कैसे छोड़ें। वह तो छोड़ बैठे होते। तुमसे सच कहती हूँ, गुलामी से उन्हें घृणा है लेकिन मैं ही समझाती रहती हूँ। बेचारे कैसे दफ्तर जाते होंगे, कैसे भान को सँभालते होंगे। सासजी के पास को रहता ही नहीं। वह बेचारी बूढ़ी, उसके साथ कहाँ-कहाँ दौड़े !चाहती हैं कि मेरी गोद में दबक कर बैठा रहे। और भान को गोद से चिढ़ है। अम्माँ मुझ पर बहुत बिगड़ेंगी, बस यही डर लग रहा है। मुझे देखने एक बार भी नहीं आई। कल अदालत में बाबूजी मुझसे कहते थे, तुमसे बहुत खफा हैं। तीन दिन तक तो दाना-पानी छोडे़ रहीं। इस छोकरी ने कुल-मरजाद डुबा दी, खानदान में दाग लगा दिया, कलमुँही कुलच्छिनी न जाने क्या-क्या बकती रहीं। मैं उनकी बातों को बुरा नहीं मानती ! पुराने जमाने की हैं उन्हें कोई चाहे कि आकर हम लोगों को मिल जायँ। तो यह उनका अन्याय है। चल कर मनाना पड़ेगा। बडी़ मिनन्तों से मानेंगी। कल ही कथा होगी, देख लेना। ब्राह्मण खायेंगे। बिरादरी जमा होगी। जेल का प्रायश्चित तो करना ही पड़ेगा। तुम हमारे घर दो-चार दिन रह कर तब जाना बहन ! मैं आकर तुम्हें ले जाऊँगी। क्षमा आनन्द के इन प्रंसगों से वंचित है। वह विधवा है, अकेली है। जलियावाला बाग में उसका सर्वस्व लुट चुका है। पति और पुत्र दोनों ही की आहुति जा चुकी है। अब कोई ऐसा नहीं जिसे वह अपना कह सके। अभी उसका हृदय इतना विशाल नहीं हुआ है कि प्राणी मात्र को अपना समझ सके। इन दस बरसों से उसका व्यथित हृदय जाति-सेवा में धैर्य और खोज रहा है। जिन कारणों ने उसके बसे हुए घर को उजाड़ दिया, उसकी गोद सूनी कर दी, उन कारणों का अन्त करने-उनको मिटाने-में वह जी-जान से लगी हुई थी। बड़े-से-बड़े बलिदान तो वह पहले ही कर चुकी थी। अब अपने हृदय के सिवाय उसके पास होम करने को और क्या रह गया था ? औरों के लिए जाति-सेवा सभ्यता का एक संस्कार हो शाक्ति और श्रद्धा के साथ उसकी साधना में लगी हुई थी। आकाश में उड़ने वाले पक्षी को भी तो अपने बसेरे की याद आती ही है। क्षमा के लिए वह आश्रय कहाँ था ? यही अवसर थे, जब क्षमा भी आत्म-समवेदना के लिए आकुल हो जाती थी। यहाँ मृदुला को पाकर वह अपने को धन्य मान रही थी; पर यह छाँव भी इतनी जल्दी हट गयी ! क्षमा ने व्यथित कंठ से कहा-यहाँ आकर भूल जाओगी मृदुला। तुम्हारे लिए तो यह रेलगाड़ी का परिचय है और मेरे लिए तुम्हारे वादे उसी परिचय के वादे हैं। कभी भेंट हो जाएगी तो या तो पहचानोगी ही नहीं, या जरा मुस्करा कर नमस्ते करती हुई अपनी राह चली जाओगी। यही दुनिया का दस्तूर है। अपने रोने से छुट्टी ही नहीं मिलती, दूसरों के लिए कोई क्योंकर रोये। तुम्हारे लिए तो मैं कुछ नहीं थीं, मेरे लिए तुम बहुत अच्छी थीं। मगर अपने प्रियजनों में बैठ कर कभी-कभी इन अभागिनी को जरूर याद कर लिया करना। भिखारी के लिए चुटकी भर आटा ही बहुत है। दूसरे दिन मैजिस्ट्रेट ने फैसला सुना दिया। मृदुला बरी हो गयी। संध्या समय वह सब बहनों से गले मिलकर, रोकर-रुला कर चली गयी, मानों मैके से विदा हुई हो
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तीन महीने बीत गये; पर मृदुला एक बार भी न आयी। और कैदियों से मिलने वाले आते रहते थे, किसी-किसी के घर से खाने-पीने की चीजें और सौगातें आ जाती थी; लेकिन क्षमा का पूछने वाला कौन बैठा था ? हर महीने के अंतिम रविवार को प्रातः काल से ही मृदुला की बाट जोहने लगती। जब मुलाकात का समय निकल जाता, तो जरा देर रोकर मन को समझा लेती-जमाने का यही दस्तूर है !एक दिन शाम को क्षमा संध्या करके उठी थी कि देखा, मृदुला सामने चली आ रही है। न वह रूप-रंग है, व वह कांति। दौड़ कर उसके गले से लिपट गयी और रोती हुई बोली-यह तेरी क्या दशा है मृदुला ! सूरत ही बदल गई। क्या बीमार है क्या ? मृदुला की आँखों से आँसुओं की झड़ी लगी थी। बोली बीमार तो नहीं हूँ बहन; विपत्ति से बिंधी हुई हूँ। तुम मुझे खूब कोस रही होगी। उन सारी निठुराइयों का प्रायश्चित करने आयी हूँ। और सब चिंताओं से मुक्त होकर आई हूँ। क्षमा काँप उठी। अंतस्तल की गहराईयों से एक लहर-सी उठती हुई जान पड़ी जिसमें मुझे उसका अपना अतीत जीवन टूटी हुई नौकाओं की भाँति उतरता हुआ दिखाई दिया। रूँधे कंठ से बोली - कुशल तो है बहन, इतनी जल्दी तुम यहाँ क्यों आ गयी ? अभी तो तीन महीने भी नहीं हुए। मृदुला मुस्कराई; पर उसकी मुस्कराहट में रुदन छिपा था। फिर बोली- अब क्या कुशल है बहन, सदा के लिए कुशल है। कोई चिंता ही नहीं रही। अब यहाँ जीवन पर्यन्त रहने को तैयार हूँ। तुम्हारे स्नेह और कृपा का मूल्य अब समझ रही हूँ उसने एक ठंडी साँस ली और सजल नेत्रों से बोली- तुम्हें बाहर की खबरें क्या मिली होंगी ! परसों शहर में गोलियाँ चलीं। देहातों में आजकल संगीनों की नोक पर लगान वसूल किया जा रहा है। किसानों के पास रूपये हैं नहीं, दें तो कहाँ से दें। अनाज का भाव दिन-रात गिरता जा रहा है। पौने दो रुपये में मन भर गेंहू आता है। मेरी उम्र ही अभी क्या है अम्मां जी भी कहती हैं कि अनाज इतना सस्ता कभी नहीं था। खेत की उपज से बीजों तक के दाम नहीं आते। मेहनत और सिंचाई इसके ऊपर। गरीब किसान लगान कहाँ से दें। उस पर सरकार का हुक्म है कि लगान कड़ाई के साथ वसूल किया जाए। किसान इस पर भी राजी नही हैं कि हमारी जमा-जथा नीलाम कर लो घर कुर्क कर लो, अपनी जमीन ले लो; मगर यहाँ तो अधिकारियों को अपनी कारगुजारी दिखाने की फिक्र पड़ी हुई है। वह चाहे प्रजा को चक्की में पीस ही क्यों न डाले; सरकार उन्हें मना न करेंगी।मैंने सुना है कि वह उलटे और सह देती है। सरकार को तो अपने कर से मतलब है उन्हें प्रजा मरे या जिये, उससे कोई प्रयोजन नहीं है। अकसर जमींदारों ने तो लगान वसूल करने से इन्कार कर दिया है। अब पुलिस उनकी मदद पर भेजी गयी है। भैरोगंज का सारा इलाका लूटा जा रहा है। मरता क्या न करता, किसान भी घबराकर छोड़-छोड़ कर भागे जा रहे हैं। एक किसान के घर में घुस कर कई कांस्टेबलों ने उसे पीटना शुरू किया। बेचारा बैठा मार खाता रहा। उसकी स्त्री से न रहा गया बेचारी। शामत की मारी कांस्टेबलों को कुवचन कहने लगी। बस एक सिपाही ने उसे नंगा कर दिया। क्या कहूँ बहन। कहते शर्म आती है। हमारे ही भाई इतनी निर्दयता करें, इससे ज्यादा दुःख और लज्जा की और क्या बात होगी ? किसान से जब्त न हुआ। कभी पेट भर गरीबों को खाने को तो मिलता नहीं, इस पर इतना कठोर परिश्रम, न देह में बल न दिल में हिम्मत। पर मनुष्य का हृदय ही तो ठहरा। बेचारा बेदम पड़ा हुआ था। स्त्री का चिल्लाना सुन कर उठ बैठा और उस दुष्ट सिपाही को धक्का देकर जमीन पर गिरा दिया। फिर दोनों में कुशतम-कुश्ती होनो लगी। एक किसान किसी पुलिस के साथ इतनी बेअदबी करे, इसे भला वह कहीं बरदाश्त कर सकती है। सब कांस्टेबलों ने गरीब को इतना मारा कि वह मर गया। क्षमा ने कहा- गाँव के और लोग तमाशा देखते रहे होंगे। मृदुला तीव्र कंठ से बोली-बहन, प्रजा ही तो हर तरह से मरन है। अगर दस-बीस आदमी जमा हो जाते, तो पुलिस कहती, हमसे लड़ने आये हैं। डंडे चलाने शुरू करती और अगर कोई आदमी क्रोध में आकर एकाध कंकड़ फेंक देता तो गोलियाँ चला देती। दस बीस आदमी भुन जाते। इसलिए लोग जमा नहीं होते; लेकिन जब वह किसान मर गया तो गाँव वालों को तैस आ गया। लाठियाँ ले-लेकर दौड़ पड़े और कांस्टेबलों को घेर लिया। सम्भव है दो चार आदमियों ने लाठियाँ चलायी भी हों। कांस्टेबलों ने गोलियाँ चलानी शुरू कीं। दो तीन सिपाहियों को हल्की चोंटे आयीं।

मानसरोवर 6

यह मेरी मातृ भूमि है
आज पूरे 60 वर्ष के बाद मुझे मातृभूमि-प्यारी मातृभूमि के दर्शन प्राप्त हुए हैं। जिस समय मैं अपने प्यारे देश से विदा हुआ था और भाग्य मुझे पश्चिम की ओर ले चला था, उस समय मैं पूर्ण युवा था। मेरी नसों में नवीन रक्त संचालित हो रहा था। हृदय उमंगों और बड़ी-बड़ी आशाओं से भरा हुआ था। मुझे अपने प्यारे भारतवर्ष से किसी अत्याचारी के अत्याचार या न्याय के बलवान हाथों ने नहीं जुदा किया था। अत्याचारी के अत्याचार और कानून की कठोरताएँ मुझसे जो चाहे करा सकती हैं, मगर मेरी प्यारी मातृभूमि मुझसे नहीं छुड़ा सकती। वे मेरी उच्च अभिलाषाएँ और बड़े-बड़े ऊँचे विचार ही थे, जिन्होंने मुझे देश-निकाला दिया था। मैंने अमेरिका जाकर वहाँ खूब व्यापार किया और व्यापार से धन भी खूब पैदा किया तथा धन से आनंद भी खूब मनमाने लूटे। सौभाग्य से पत्नी भी ऐसी मिली, जो सौंदर्य में अपना सानी आप ही थी। उसकी लावण्यता और सुन्दरता की ख्याति तमाम अमेरिका में फैली। उसके हृदय में ऐसे विचार की गुंजाइश भी न थी, जिसका संबंध मुझसे न हो, मैं उस पर तन-मन से आसक्त था और वह मेरी सर्वस्व थी। मेरे पाँच पुत्र थे जो सुन्दर, हृष्ट-पुष्ट और ईमानदार थे। उन्होंने व्यापार को और भी चमका दिया था। मेरे भोले-भाले नन्हें-नन्हें पौत्र गोद में बैठे हुए थे, जबकि मैंने प्यारी मातृभूमि के अंतिम दर्शन करने को अपने पैर उठाये। मैंने अनंत धन, प्रियतमा पत्नी, सपूत बेटे और प्यारे-प्यारे जिगर के टुकड़े नन्हें-नन्हें बच्चे आदि अमूल्य पदार्थ का केवल इसीलिए परित्याग कर दिया कि मैं प्यारी भारत-जननी का अंतिम दर्शन कर लूँ। मैं बहुत बूढ़ा हो गया हूँ; दस वर्ष के बाद पूरे सौ वर्ष का हो जाऊंगा। अब मेरे हृदय में केवल एक ही अभिलाषा बाकी है कि मैं अपनी मातृभूमि का रजकण बनूँ।यह अभिलाषा कुछ आज ही मेरे मन में उत्पन्न नहीं हुई, बल्कि उस समय भी थी जब मेरी प्यारी पत्नी अपनी मधुर बातों और कोमल कटाक्षों से मेरे हृदय को प्रफुल्लित किया करती थी। और जबकि मेरे युवा पुत्र प्रात:काल आकर अपने वृद्ध पिता को सभक्ति प्रणाम करते, उस समय भी मेरे हृदय में एक काँटा-सा खटखटाता रहता था कि मैं अपनी मातृभूमि से अलग हूँ। यह देश मेरा देश नहीं है और मैं इस देश का नहीं हूँ। मेरे पास धन था, पत्नी थी, लड़के थे और जायदाद थी, मगर न मालूम क्यों, मुझे रह-रहकर मातृभूमि के टूटे झोंपड़े, चार-छै बीघा मौरूसी जमीन और बालपन की लँगोटियाँ यारों की याद अक्सर सता जाया करती। प्राय: अपार प्रसन्नता और आनंदोत्सव के अवसर पर भी यह विचार हृदय में चुटकी लिया करता था कि ‘‘यदि मैं अपने देश में होता।’’
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जिस समय मैं बंबई में जहाज से उतरा, मैंने पहिले काले कोट-पतलून पहने टूटी-फूटी अँगरेजी बोलते हुए मल्लाह देखे। फिर अँगरेज़ी दूकान, ट्राम और मोटरगाड़ियाँ दीख पड़ी। इसके बाद रबरटायर वाली गाड़ियों की ओर मुँह में चुरट दाबे हुए आदमियों से मुठभेड़ हुई। फिर रेल का विक्टोरिया टर्मिनल स्टेशन देखा। बाद में मैं रेल में सवार होकर हरी-भरी पहाड़ियों के मध्य में स्थित अपने गाँव को चल दिया। उस समय मेरी आँखों में आँसू भर आये और मैं खूब रोया, क्योंकि यह मेरा देश न था। यह वह देश न था, जिसके दर्शनों की इच्छा सदा मेरे हृदय में लहराया करती थी। यह तो कोई और देश था। यह अमेरिका या इंग्लैंड था; मगर प्यारा भारत नहीं था। रेलगाड़ी जंगलों, पहाड़ों, नदियों और मैदानों को पार करती हुई मेरे प्यारे गाँव के निकट पहुँची, जो किसी समय में फूल, पत्तों और फलों की बहुतायत तथा नदी-नालों की अधिकता से स्वर्ग की होड़ कर रहा था। मैं उस गाड़ी से उतरा, तो मेरा हृदय बाँसों उछल रहा था-अब अपना प्यारा घर देखूँगा-अपने बालपन के प्यारे साथियों से मिलूँगाँ। मैं इस समय बिलकुल भूल गया था कि मैं 10 वर्ष का बूढ़ा हूँ। ज्यों-ज्यों मैं गाँव के निकट आता था, मेरे पग शीघ्र-शीघ्र उठते थे और हृदय में अकथनीय आनंद का स्रोत्र उमड़ रहा था। प्रत्येक वस्तु पर आँखें फाड़-फाड़कर दृष्टि डालता। अहा ! यह वही नाला है, जिसमें हम रोज घोड़े नहलाते थे और स्वयं भी डुबकियाँ लगाते थे, किन्तु अब उसके दोनों और काँटेदार तार लगे हुए थे। सामने एक बँगला था, जिसमें दो अँगरेज बँदूकें लिये इधर-उधर ताक रहे थे। नाले में नहाने की सख्त मनाही थी। गाँव में गया और निगाहें बालपन के साथियों को खोजने लगीं, किन्तु शोक ! वे सब के सब मृत्यु के ग्रास हो चुके थे। मेरा घर-मेरा टूटा-फूटा झोपड़ा-जिसकी गोद में मैं बरसों खेला था, जहाँ बचपन और बेफ्रिकी का आनंद लूटे थे और जिनका चित्र अभी तक मेरी आँखों में फिर रहा था, वही मेरा प्यार घर अब मिट्टी का ढेर हो गया था। यह स्थान गैर-आबाद न था। सैकड़ों आदमी चलते-फिरते दृष्टि में आते थे, जो अदालत-कचहरी और थाना-पुलिस की बातें कर रहे थे, उनके मुखों से चिंता, निर्जीवता और उदासी प्रदर्शित होती थी और वे सब सांसारिक चिंताओं से व्यथित मालूम होते थे। मेरे साथियों के समान हृदय-पुष्ट, बलवान, लाल चेहरे वाले नवयुवक कहीं न दीख पड़ते थे। उस अखाड़े के स्थान पर जिसकी जड़ मेरे हाथों ने डाली थी, अब एक टूटा-फूटा स्कूल था। उसमें दुर्बल तथा कांतिहीन, रोगियों की-सी सूरत वाले बालक फटे कपड़े पहिने बैठे ऊँघ रहे थे। उनको देखकर सहसा मेरे मुख से निकल पड़ा कि नहीं-नहीं, यह मेरा प्यारा देश नहीं है। बरगद के पेड़ की ओर मैं दौड़ा, जिसकी सुहावनी छाया में मैंने बचपन के आनंद उड़ाये थे, जो हमारे छुटपन का क्रीड़ास्थल और युवावस्था का सुखद वासस्थान था। आह ! इस प्यारे बरगद को देखते ही हृदय पर एक बड़ा आघात पहुँचा और दिल में महान् शोक उत्पन्न हुआ। उसे देखकर ऐसी-ऐसी दु:खदायक तथा हृदय-विदारक स्मृतियाँ ताजी हो गयीं कि घण्टों पृथ्वी पर बैठे-बैठे मैं आँसू बहाता रहा। हाँ ! यही बरगद है, जिसकी डालों पर चढ़कर मैं फुनगियों तक पहुँचता था, जिसकी जटाएँ हमारी झूला थीं और जिसके फल हमें सारे संसार की मिठाइयों से अधिक स्वादिष्ट मालूम होते थे। मेरे गले में बाहे डालकर खेलने वाले लँगोटिया यार, जो कभी रूठते थे, कभी मनाते थे, कहाँ गये ? हाय, बिना घरबार का मुसाफिर अब क्या अकेला हूँ ? क्या मेरा कोई भी साथी नहीं ? इस बरगद के निकट अब थाना था और बरगद के नीचे कोई लाल साफा बाँधे बैठा था। उसके आस-पास दस-बीस लाल पगड़ी वाले करबद्ध खड़े थे। वहाँ फटे-पुराने कपड़े पहने, दुर्भिक्षग्रस्त पुरुष, जिस पर अभी चाबुकों की बौछार हुई थी, पड़ा सिसक रहा था। मुझे ध्यान आया कि यह मेरा प्यारा देश नहीं है, कोई और देश है। यह योरोप है, अमेरिका है, मगर मेरी प्यारी मातृभूमि नहीं है- कदापि नहीं है।
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इधर से निराश होकर मैं उस चौपाल की ओर चला, जहाँ शाम के वक्त पिताजी गाँव के अन्य बुजुर्गों के साथ हुक्का पीते और हँसी-कहकहे उड़ाते थे। हम भी उस टाट के बिछौने पर कलाबाजियाँ खाया करते थे। कभी-कभी वहाँ पंचायत भी बैठती थी, जिसके सरपंच सदा पिताजी ही हुआ करते थे। इसी चौपाल के पास एक गोशाला थी, जहाँ गाँव भर की गायें रखी जाती थीं, और बछड़ों के साथ हम यहीं किलोलें किया करते थे। शोक ! कि अब उस चौपाल का पता तक न था। वहाँ अब गाँवों में टीका लगाने की चौकी और डाकखाना था। उस समय इसी चौपाल से लगा एक कोल्हवाड़ा था, जहाँ जाड़े के दिनों में ईख पेरी जाती थी और गुड़ की सुगंध से मस्तिष्क पूर्ण हो जाता था। हम और हमारे साथी वहाँ गंडरियों के लिए बैठे रहते और गंडरियाँ करने वाले मजदूरों के हस्तलाघव को देखकर आश्चर्य किया करते थे। वहाँ हजारों बार मैंने कच्चा रस और पक्का दूध मिलाकर पिया था और वहाँ आस-पास के घरों की स्त्रियाँ और बालक अपने-अपने घड़े लेकर आते थे और उनमें रस भरकर ले जाते थे। शोक है कि वे कोल्हू अब तक ज्यों के त्यों खड़े थे, किन्तु कोल्हवाड़े की जगह पर अब एक सन लपेटने वाली मशीन लगी थी और उसके सामने एक तम्बोली और सिगरेटवाले की दूकान थी। इन हृदय-विदारक दृश्यों को देखकर मैंने दुखित हृदय से, एक आदमी से, जो देखने में सभ्य मालूम होता था, पूछा, ‘‘महाशय, मैं एक परदेशी यात्री हूँ। रात भर लेट रहने के लिए मुझे आज्ञा दीजिए ?’’ इस आदमी ने मुझे सिर से पैर तक गहरी दृष्टि से देखा और कहने लगा कि ‘‘आगे जाओ, यहाँ जगह नहीं है।’’ मैं आगे गया और वहां से भी यही उत्तर मिला। ‘‘आगे जाओ।’’ पाँचवीं बार एक सज्जन से स्थान माँगने पर उन्होंने एक मुट्ठी चने मेरे हाथ पर रख दिये। चने मेरे हाथ से छूट पड़े और नेत्रों से अविरल अश्रु-धारा बहने लगी। मुख से सहसा मिकल पड़ा कि ‘‘हाय ! यह मेरा देश नहीं है, यह कोई और देश है। यह हमारा अतिथि-सत्कारी प्यारा भारत नहीं है- कदापि नहीं।’’मैंने एक सिगरेट की डिबिया खरीदी और एक सुनसान जगह पर बैठकर सिगरेट पीते हुए पूर्व समय की याद करने लगा कि अचानक मुझे धर्मशाला का स्मरण हो आया, जो मेरे विदेश जाते समय बन रही थी; मैं उस ओर लपका कि रात किसी प्रकार वहीं काट लूँ, मगर शोक ! शोक !!! महान् शोक ! !!! धर्मशाला ज्यों की त्यों खड़ी थी, किन्तु उसमें गरीब यात्रियों के टिकने के लिए स्थान न था। मदिरा, दुराचार और द्यूत ने उसे अपना घर बना रखा था। यह दशा देखकर विवशतः मेरे हृदय से एक सर्द आह निकल पड़ी और मैं जोर से चिल्ला उठा कि ‘‘नहीं, नहीं, नहीं और हजार बार नहीं है’’- यह मेरा प्यारा भारत नहीं है। यह कोई और देश है। यह योरोप है, अमेरिका है; मगर भारत कदापि नहीं है।
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अँधेरी रात थी। गीदड़ और कुत्ते अपने-अपने कर्कश स्वर के उच्चारण कर रहे थे। मैं अपना दुखित हृदय लेकर उसी नाले के किनारे जाकर बैठ गया और सोचने लगा- अब क्या करूँ। फिर अपने पुत्रों के पास लौट जाऊँ और अपना यह शरीर अमेरिका की मिट्टी में मिलाऊँ। अब तक मेरी मातृभूमि थी, मैं विदेश में जरूर था किंतु मुझे अपने प्यारे देश की याद बनी थी, पर अब मैं देश-विहीन हूँ। मेरा कोई देश नहीं है। इसी सोच-विचार में मैं बहुत देर तक घुटनों पर सिर रखे मौन रहा। रात्रि नेत्रों में ही व्यतीत की। घंटे वाले ने तीन बजाये और किसी के गाने का शब्द कानों में आया। हृदय गद्गद् हो गया कि यह तो देश का ही राग है, यह तो मातृभूमि का ही स्वर है। मैं तुरंत उठ खड़ा हुआ और क्या देखता हूँ कि 15-20 वृद्ध स्त्रियाँ, सफेद धोतियाँ पहिने, हाथों में लोटे लिये स्नान को जा रही हैं और गाती जाती हैं :
‘‘हमारे प्रभु, अवगुन चित न धरो....’’
मैं इस गीत को सुनकर तन्मय हो ही रहा था कि इतने में मुझे बहुत से आदमियों की बोलचाल सुन पड़ी। उनमें से कुछ लोग हाथों में पीतल के कमंडलु लिये हुए शिव-शिव, हर-हर, गंगे-गंगे, नारायण-नारायण आदि शब्द बोलते हुये चले जाते थे। आनंददायक और प्रभावोत्पादक राग से मेरे हृदय पर जो प्रभाव हुआ, उसका वर्णन करना कठिन है। मैंने अमेरिका की चंचल से चंचल और प्रसन्न से प्रसन्न चित्तवाली लावण्यवती स्त्रियों का आलोप सुना था, सहस्त्रों बार उनकी जिह्वा से प्रेम और प्यार के शब्द सुने थे, हृदयाकर्षक वचनों का आनंद उठाया था, मैंने सुरीले पक्षियों का चहचहाना भी सुना था, किन्तु जो आनंद, जो मज़ा और जो सुख मुझे इस राग में आया, वह मुझे जीवन में कभी प्राप्त नहीं हुआ था। मैंने खुद गुनगुना कर गाया :
‘‘हमारे प्रभु, अवगुन चित न धरो.....’’
मेरे हृदय में फिर उत्साह आया कि ये तो मेरे प्यारे देश की ही बातें हैं। आनंदातिरेक से मेरा हृदय आनंदमय हो गया। मैं भी इन आदमियों के साथ हो लिया और 6 मील तक पहाड़ी मार्ग पार करके उसे नदी के किनारे पहुँचा, जिसका नाम पतित-पावनी है, जिसकी लहरों में डुबकी लगाना और जिसकी गोद में मरना प्रत्येक हिंदू अपना परम सौभाग्य समझता है। पतित-पावनी भागीरथी गंगा मेरे प्यारे गाँव से छै-सात मील पर बहती है। किसी समय में घोड़े पर चढ़कर गंगा माता के दर्शनों की लालसा हृदय में सदा रहती थी। यहाँ मैंने हजारों मनुष्यों को इस ठंडे पानी में डुबकी लगाते हुए देखा। कुछ लोग बालू पर बैठे गायत्री-मंत्र का जाप कर रहे थे। कुछ लोग हवन करने में संलग्न थे। कुछ माथे पर तिलक लगा रहे थे और कुछ लोग सस्वर वेदमंत्र पढ़ रहे थे। मेरा हृदय फिर उत्साहित हुआ और मैं जोर से कह उठा- ‘‘हाँ, हाँ, यही मेरा प्यारा देश है, यही मेरी पवित्र मातृभूमि है, यही मेरा सर्वश्रेष्ठ भारत है और इसी के दर्शनों की मेरी उच्कट इच्छा थी तथा इसी की पवित्र धूलि कण बनने की मेरी प्रबल अभिलाषा है।’’
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मैं विशेष आनंद में मग्न था। मैंने अपना पुराना कोट और पतलून उतारकर फेंक दिया और गंगा माता की गोद में जा गिरा, जैसे कोई भोला-भाला बालक दिनभर निर्दय लोगों के साथ रहने के बाद संध्या को अपनी प्यारी माता की गोद में दौड़कर चला आये और उसकी छाती से चिपट जाय। हाँ, अब मैं अपने देश में हूँ। यह मेरी प्यारी मातृभूमि है। ये लोग मेरे भाई हैं और गंगा मेरी माता है।मैंने ठीक गंगा के किनारे एक छोटी-सी कुटी बनवा ली है। अब मुझे सिवा राम-नाम जपने के और कोई काम नहीं है। मैं नित्य प्रात:-सायं गंगा-स्नान करता हूँ और मेरी प्रबल इच्छा है कि इसी स्थान पर मेरे प्राण निकलें और मेरी अस्थियाँ गंगा माता की लहरों की भेंट हों।मेरी स्त्री और मेरे पुत्र बार-बार बुलाते हैं; मगर अब मैं यह गंगा माता का तट और अपना प्यारा देश छोड़कर वहाँ नहीं जा सकता। अपनी मिट्टी गंगा जी को ही सौंपूंगा। अब संसार की कोई आकांक्षा मुझे इस स्थान से नहीं हटा सकती, क्योंकि यह मेरा प्यार देश और यही प्यारी मातृभूमि है। बस, मेरी उत्कट इच्छा यही है कि मैं अपनी प्यारी मातृभूमि में ही अपने प्राण विसर्जन करूँ।

मानसरोवर 5

मन्दिर
मातृ-प्रेम! तुझे धन्य है ! संसार में और जो कुछ है, मिथ्या है, निस्सार है। मातृ-प्रेम ही सत्य है, अक्षय है, अनश्वर है। तीन दिन से सुखिया के मुँह में न अन्न का एक दाना गया था, न पानी की एक बूँद। सामने पुआल पर माता का नन्हा-सा लाल पड़ा कराह रहा था। आज तीन दिन से उसने आँखें न खोली थीं। कभी उसे गोद में उठा लेती, कभी पुआल पर सुला देती। हँसते-खेलते बालक को अचानक क्या हो गया, यह कोई नहीं बताता। ऐसी दशा में माता को भूख और प्यास कहाँ ? एक बार पानी का एक घूँट मुँह में लिया था, पर कंठ के नीचे न ले जा सकी। इस दुखिया कि विपत्ति का वारपार न था। साल भर के भीतर दो बालक गंगा जी की गोद में सौंप चुकी थी। पतिदेव पहिले ही सिधार चुके थे। अब उस अभागिनी के जीवन का आधार, अवलम्ब, जो कुछ था, यही बालक था। हाय ! क्या ईश्वर इसे भी उसकी गोद से छीन लेना चाहते हैं ?- यह कल्पना करते ही माता की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगते थे। इस बालक को वह क्षण भर के लिए भी अकेला न छोड़ती थी। उसे साथ लेकर घास छीलने जाती। घास बेचने बाजार जाती तो बालक गोद में होता। उसके लिए उसने नन्हीं-सी खुरपी और नन्हीं-सी खाँची बनवा दी थी। जियावन माता के साथ घास छीलता और गर्व से कहता-अम्माँ, हमें भी बड़ी-सी खुरपी बनवा दो, हम बहुत-सी घास छीलेंगे, तुम द्वारे माची पर बैठी रहना, अम्माँ; मैं घास बेंच लाऊँगा। माँ पूछती-हमारे लिए क्या-क्या लाओगे, बेटा ? जियावन लाल-लाल साड़ियों का वादा करता। अपने लिए बहुत-सा गुड़ लाना चाहता था। वे ही भोली-भाली बातें इस समय याद आ-आकर माता के हृदय को शूल के समान बेध रही थीं। जो बालक को देखता, यही कहता कि किसी की डीठ है; इस विधवा का भी संसार में कोई बैरी है ? अगर उसका नाम मालूम हो जाता, तो सुखिया जाकर उसके चरणों पर गिर पड़ती और बालक को उसकी गोद में रख देती। क्या उसका हृदय दया से न पिघल जाता ? पर नाम कोई नहीं बताता। हाय ! किससे पूछे, क्या करें ?
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तीन पहर रात बीत चुकी थी। सुखिया का चिंता-व्यथिक चंचल मन कोठे-कोठे दौड़ रहा था। किस देवी की शरण जाय, किस देवता की मनौती करे, इस सोच में पड़े-पड़े उसे एक झपकी आ गयी। क्या देखती है कि उसका स्वामी आकर बालक के सिरहाने खड़ा हो जाता है और बालक के सिर पर हाथ फेरकर कहता है-रो मत, सुखिया ! तेरा बालक अच्छा हो जायेगा। कल ठाकुर जी की पूजा कर दे, वही तेरे सहायक होंगे। यह कहकर वह चला गया। सुखिया की आँख खुल गयी अवश्य ही उसके पतिदेव आये थे। इसमें सुखिया को जरा भी संदेह न हुआ। उन्हें अब भी मेरी सुधि है, यह सोच कर उसका हृदय आशा से परिप्लावित हो उठा। पति के प्रति श्रद्धा और प्रेम से उसकी आँखें सजल हो गयीं। उसने बालक को गोद में उठा लिया और आकाश की ओर ताकती हुई बोली-भगवान् ! मेरा बालक अच्छा हो जाए तो मैं तुम्हारी पूजा करूँगी। अनाथ विधवा पर दया करो। उसी समय जियावन की आँखे खुल गयीं। उसने पानी माँगा। माता ने दौड़ कर कटोरे में पानी लिया और बच्चे को पिला दिया। जियावन ने पानी पीकर कहा-अम्मा रात है कि दिन ? सुखिया-अभी तो रात है बेटा, तुम्हारा जी कैसा है ? जियावन-अच्छा है अम्माँ ! अब मैं अच्छा हो गया। सुखिया-तुम्हारे मुँह में घी-शक्कर, बेटा, भगवान् करे तुम जल्द अच्छे हो जाओ। कुछ खाने को जी चाहता है ? जियावन-हाँ अम्माँ थोड़ा-सा गुड़ दे दो। सुखिया-गुड़ मत खाओ भैया, अवगुन करेगा। कहो तो खिचड़ी बना दूँ। जियावन-नहीं मेरी अम्माँ, जरा सा गुड़ दे दो, तेरे पैरों पड़ूँ। माता इस आग्रह को न टाल सकी। उसने थोड़ा-सा गुड़ निकाल कर जियावन के हाथ में रख दिया और हाँड़ी का ढक्कन लगाने जा रही थी कि किसी ने बाहर से आवाज दी। हाँड़ी वहीं छोड़ कर वह किवाड़ खोलने चली गयी। जियावन ने गुड़ की दो पिंडियाँ निकाल लीं और जल्दी-जल्दी चट कर गया।
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दिन भर जियावन की तबीयत अच्छी रही। उसने थोड़ी सी खिचड़ी खायी, दो-एक बार धीरे-धीरे द्वार पर भी आया और हमजोलियों के साथ खेल न सकने पर भी उन्हें खेलते देखकर उसका जी बहल गया। सुखिया ने समझा, बच्चा अच्छा हो गया। दो-एक दिन में जब पैसे हाथ में आ जायेंगे, तो वह एक दिन ठाकुर जी की पूजा करने चली जाएगी। जाड़े के दिन झाड़ू-बहारू, नहाने-धोने और खाने-पीने में कट गये; मगर जब संध्या के समय फिर जियावन का जी भारी हो गया, तब सुखिया घबरा उठी। परंतु मन में शंका उत्पन्न हुई कि पूजा में विलम्ब करने से ही बालक फिर मुरझा गया है। अभीथोड़ा-सा दिन बाकी था। बच्चे को लेटा कर वह पूजा का सामान तैयार करने लगी। फूल तो जमींदार के बगीचे में मिल गये। तुलसीदल द्वार पर था, पर ठाकुर जी के भोग के लिए कुछ मिष्ठान तो चाहिए। सारा गाँव छान आई कहीं पैसे उधार न मिले। अब वह हतास हो गयी। हाय रे अदिन ! कोई चार आने पैसे भी नहीं देता। आखिर उसने अपने हाथों के चाँदी के कड़े उतारे और दौड़ी हुई बनिये कि दुकान पर गयी, कड़े गिरों रखे, बतासे लिए और दौड़ी हुई घर आयी। पूजा का सामान तैयार हो गया, तो उसने बालक को गोद में उठाया और दूसरे हाथ में पूजा की थाली लिये मंदिर की ओर चली। मन्दिर में आरती का घंटा बज रहा था। दस-पाँच भक्तजन खड़े स्तुति कर रहे थे। इतने में सुखिया जाकर मन्दिर के सामने खड़ी हो गयी।पुजारी ने पूछा क्या है रे ? क्या करने आयी है ? सुखिया चबूतरे पर आकर बोली-ठाकुर जी की मनौती की थी महाराज पूजा करने आयी हूँ। पुजारी जी दिन भर जमींदार के असामियों की पूजा किया करते थे और शाम –सबेरे ठाकुर जी की। रात को मन्दिर ही में सोते थे, मन्दिर ही में आपका भोजन भी बनता था, जिससे ठाकुरद्वारे की सारी अस्तरकारी काली पड़ गयी थी। स्वभाव के बड़े दयालु थे, निष्ठावान इतने थे कि चाहे कितनी ही ठंड पड़े कितनी ही ठंडी हवा चले, बिना स्नान किये मुँह में पानी तक न डालते थे। अगर इस पर भी उनके हाथों और पैरों में मैल की मोटी तह जमी हुई थी, तो इसमें उनका कोई दोष न था ! बोले-तो क्या भीतर चली आयेगी। हो तो चुकी पूजा। यहा आकर भरभ्रष्ट करेगी। एक भक्तजन ने कहा-ठाकुर जी को पवित्र करने आयी है ? सुखिया ने बड़ी दीनता से कहा-ठाकुर जी के चरन छूने आयी हूँ सरकार ! पूजा की सब सामग्री लाई हूँ। पुजारी-कैसी बेसमझी की बात करती है रे, कुछ पगली तो नहीं हो गयी है। भला तू ठाकुर जी को कैसे छुएगी ? सुखिया को अब तक कभी ठाकुरद्वारे में आने का मौका न मिला था। आश्चर्य से बोली-सरकार वह तो संसार के मालिक हैं। उनके दरसन से तो पापी भी तर जाता है, मेरे छूने से उन्हें कैसे छूत लग जायेगी ? पुजारी- अरे तू चमारिन है कि नहीं रे ? सुखिया-तो क्या भगवान ने चमारों को नहीं सिरजा है ? चमारों का भगवान और कोई है ? इस बच्चे की मनौती है सरकार ! इस पर वही भक्त महोदय, जो अब स्तुति समाप्त कर चुके थे, डपटकर बोले-मार के भगा दो चुड़ैल को। भरभ्रष्ट करने आयी है, फेंक दो थाली-वाली। संसार में तो आप ही आग लगी हुई है, चमार भी ठाकुर जी की पूजा करने लगेंगे, तो पिरथी रहेगी कि रसातल को चली जाएगी। दूसरे भक्त महाशय बोले-अब बेचारे ठाकुर जी को चमारों के हाथ का भोजन करना पड़ेगा। अब परलय होने में कुछ कसर नहीं है। ठंड पड़ रही थी, सुखिया खड़ी काँप रही थी और यहाँ धर्म के ठेकेदार लोग समय की गति पर आलोचनाएँ कर रहे थे। बच्चा मारे ठंड के उसकी छाती में घुसा जाता था, किन्तु सुखिया वहाँ से हटने का नाम न लेती थी। ऐसा मालूम होता था कि उसके दोनों पाँव भूमि में गड़े हैं। रह-रहकर उसके हृदय में ऐसा उदगार उठता थाकि जाकर ठाकुर जी के चरणों पर गिर पड़े। ठाकुर जी क्या इन्हीं के हैं, हम गरीबों का उनसे कोई नाता नहीं है, ये लोग होते है कौन रोकने वाले पर यह भय होता था कि इन लोगों ने कहीं सचमुच थाली-वाली फेंक दी तो क्या करूँगी ? दिल में ऐंठ कर जाती थी। सहसा उसे एक बात सूझी वह वहाँ से कुछ दूर जाकर एक वृक्ष के नीचे अँधेरे में छिप कर इन भक्तजनों के जाने की राह देखने लगी।
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आरती की स्तुति के पश्चात भक्त जन बड़ी देर तक श्रीमद्भागवत का पाठ करते रहे। उधर पुजारी जी ने चूल्हा जलाया और खाना पकाने लगे। चूल्हे के सामने बैठे हुए ‘हूँ-हूँ’ करते जाते थे और बीच-बीच में टिप्पणियाँ भी करते जाते थे। दस बजे रात तक कथा वार्ता होती रही और सुखिया वृक्ष के नीचे ध्यानावस्था में खड़ी रही। सारे भक्त लोगों ने एक-एक करके घर की राह ली। पुजारी जी अकेले रह गये। अब सुखिया आकर मन्दिर के बरामदे के सामने खड़ी हो गयी, जहाँ पुजारी जी आसन जमाये बटलोई का क्षुधावर्द्घव मधुर संगीत सुनने में मग्न थे। पुजारी जी ने आहट पाकर गरदन उठायी तो सुखिया को खड़ी देखकर बोले क्यों रे, तू अभी तक खड़ी है !सुखिया ने थाली जमीन पर रख दी और एक हाथ फैलाकर भिक्षा प्रार्थना करती हुई बोली महाराज जी, मैं अभागिनी हूँ। यही बालक मेरे जीवन का अलम है, मुझ पर दया करो। तीन दिन से इसने सिर नहीं उठाया। तुम्हें बड़ा जस होगा, महाराज जी ! यह कहते-कहते सुखिया रोने लगी। पुजारी जी दयालु तो थे, पर चमारिन को ठाकुर जी के समीप जाने देने का अश्रुतपूर्व घोर पातक वह कैसे कर सकते थे ? न जाने ठाकुर जी इसका क्या दंड दें । आखिर उनके भी बाल-बच्चे थे। कहीं ठाकुर जी कुपित होकर गाँव का सर्वनाश कर दें तो ? बोले-घर जाकर भगवान् का नाम ले, तो बालक अच्छा हो जाएगा। मैं यह तुलसी दल देता हूँ, बच्चे को खिला दे, चरणामृत उसकी आँखों में लगा दे। भगवान् चाहेंगे तो सब अच्छा ही होगा। सुखिया-ठाकुर जी के चरणों पर गिरने न दोगे महाराज जी ? बड़ी दुखिया हूँ, उधार काढ़कर पूजा की सामग्री जुटायी है। मैंने कल सपना देखा था, महाराज जी कि ठाकुर जी की पूजा कर, तेरा बालक अच्छा हो जायेगा। तभी आई हूँ। मेरे पास एक रुपया है। वह मुझसे ले लो पर मुझे एक छन भर ठाकुर जी के चरनों पर गिर लेने दो। इस प्रलोभन से पंडित जी को एक क्षण के लिए विचलित कर दिया किंतु मूर्खता के कारण ईश्वर का भय उनके मन में कुछ-कुछ बाकी था। सँभाल कर बोले-अरी पगली, ठाकुर जी भक्तों के मन का भाव देखते हैं कि चरण पर गिरना देखते है। सुना नहीं है- ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।’ मन में भक्ति न हो, तो लाख कोई भगवान् के चरणों पर गिरे, कुछ न होगा। मेरे पास एक जंतर है। दाम तो उसका बहुत है पर तुझे एक ही रुपये में दे दूँगा। उसे बच्चे के गले में बाँध देना, बस, कल बच्चा खेलने लगेगा। सुखिया-ठाकुर जी की पूजा न करने दोगे ? पुजारी-तेरे लिए इतनी ही पूजा बहुत है। जो बात कभी नहीं हुई, वह आज मैं कर दूँ और गाँव पर कोई आफत-विपत आ पड़े तो क्या हो, इसे भी तो सोचो ! तू यह जंतर ले जा, भगवान् चाहेंगे तो रात ही भर में बच्चे का क्लेश कट जायेगा। किसी की दीठ पड़ गयी है। है भी तो चोंचाल। मालूम होता है, छत्तरी बंस है। सुखिया-जब से इसे ज्वर है मेरे प्राण नहों में समाये हुए हैं। पुजारी-बड़ा होनहार बालक है। भगवान् जिला दें तो तेरे सारे संकट हर लेगा। हाँ तो बहुत खेलने आया करता था। इधर दो-तीन दिन से नहीं देखा था। सुखिया-तो जंतर को कैसे बाँधूँगी महाराज ? पुजारी-मैं कपड़े में बाँधकर देता हूँ। बस, गले में पहना देना अब तू इस बेला नवीन बस्तर कहाँ खोजने जायेगी। सुखिया ने दो रुपये पर कड़े गिरो रखे थे। एक पहले ही भँजा चुकी थी। दूसरा पुजारी जी को भेंट किया और जंतर लेकर मन को समझाती हुई घर लौट आयी।
5
सुखिया ने घर पहुँचकर बालक को जंतर बाँध दिया ज्यों-ज्यों रात गुजरती थी उसका ज्वर भी बढ़ता जाता था, यहाँ तक कि तीन बजते–बजते उसके हाथ पाँव शीतल होने लगे। तब वह घबड़ा उठी और सोचने लगी-हाय। अगर मैं अन्दर चली जाती और भगवान् के चरणों में गिर पड़ती तो कोई मेरा क्या कर लेता ? यही न होता कि लोग मुझे धक्के देकर निकाल देते, शायद मारते भी, पर मेरा मनोरथ तो पूरा हो जाता यदि मैं ठाकुर जी के चरणों को अपने आँसुओं से भिगो देती औरबच्चे को उनके चरणों में सुला देती तो क्या उन्हें दया न आती ? वह तो दयामय भगवान हैं, दीनों की रक्षा करते हैं, क्या मुझ पर दया न करते ? यह सोचकर सुखिया का मन अधीर हो उठा। नहीं, अब विलम्ब करने का समय न था। वह अवश्य जायेगी और ठाकुर जी के चरणों पर गिर कर रोएगी। उस अबला के आशंकित हृदय को अब उसके सिवा और कोई अवलम्ब, कोई आसरा न था। मंदिर के द्वार बंद होंगे, तो वह ताले तोड़ डालेगी। ठाकुर जी क्या किसी के हाथों बिक गये हैं कि उन्हें बंद कर रखे। रात के तीन बज गये थे। सुखिया ने बालक को कम्बल से ढाँक कर गोद में उठाया, एक हाथ में थाली उठायी और मंदिर की ओर चली। घर से बाहर निकलते ही शीतल वायु के झोंकों से उसका कलेजा काँपने लगा। शीत से पाँव शिथिल हुए जाते थे। उस पर चारों ओर अंधकार छाया हुआ था। रास्ता दो फर्लांग से कम न था। पगडंडी वृक्षों के नीचे-नीचे गयी थी। कुछ दूर दाहिनी ओर एक पोखरा था, कुछ दूर बाँस की कोठियाँ में चुड़ैलों का अड्डा था। बायीं ओर हरे-भरे खेत थे। चारों ओर सन-सन हो रहा था, अंधकार साँय-साँय कर रहा था। सहसा गीदड़ों के कर्कश स्वर से हुआँ-हुआँ करना शुरू किया। हाय ! अगर कोई उसे एक लाख रुपया देता तो भी इस समय यहाँ न आती; पर बालक की ममता सारी शंकाओं को दबाये हुए थी। ‘हे भगवान् अब तुम्हारा ही आसरा है !’ यह जपती वह मंदिर की ओर चली जा रही थी। मंदिर के द्वार पर पहुँचकर सुखिया ने जंजीर टटोल कर देखी। ताला पड़ा हुआ था। पुजारी जी बरामदे से मिली कोठरी में किवाड़ बन्द किये सो रहे थे। चारों ओर अँधेरा छाया हुआ था। सुखिया चबूतरे के नीचे से एक ईंट उठा लाई और जोर-जोर से ताले के ऊपर पटकने लगी। उसके हाथों में न जाने इतनी शक्ति कहाँ से आ गयी थी। दो ही तीन चोटों में ताला और ईंट दोनों टूटकर चौखट पर गिर पड़े। सुखिया ने द्वार खोल अन्दर जाना ही चाहती थी कि पुजारी किवाड़ खोलकर हड़बड़ाये हुए बाहर निकल आये और ‘चोर, चोर !’ का गुल मचाते हुए गाँव की ओर दौड़े। जाड़ों में प्रायः पहर रात रहे ही लोगों की नींद खुल जाती है। यह शोर सुनते ही कई आदमी इधर-उधर से लालटेनें लिए हुए निकल पड़े और पूछने लगे-कहाँ है ? किधर गया ? पुजारी-मंदिर का द्वार खुला पड़ा है। मैंने खट-खट की आवाज सुनी। सहसा सुखिया बरामदे से निकल कर चबूतरे पर आयी और बोली-चोर नहीं है मैं हूँ; ठाकुर जी की पूजा करने आयी थी। अभी तो अंदर गयी भी नहीं। मार हल्ला मचा दिया। पुजारी ने कहा-अब अनर्थ हो गया ! सुखिया मंदिर में जाकर ठाकुर जी को भ्रष्ट कर आयी ! फिर क्या था, कई आदमी झल्लाये हुए लपके और सुखिया पर लातों और घूसों की मार पड़ने लगी। सुखिया एक हाथ में बच्चे को पक़ड़े हुए थी और दूसरे हाथ से उसकी रक्षा कर रही थी। एकाएक बलिष्ट ठाकुर ने उसे इतनी जोर से धक्का दिया कि बालक उसके हाथों से छूट कर जमीन पर गिर पड़ा, मगर वह न रोया न बोला, न साँस ली, सुखिया भी गिर पड़ी थी। सँभल कर बच्चे को उठाने लगी, तो उसके मुँख पर नजर पड़ी। ऐसा जान पड़ा मानों पानी में परछाई हो। उसके मुँह से एक चीख निकल पड़ी। बच्चे का माथा छूकर देखा। सारी देह ठंडी हो गयी थी। एक लम्बी साँस खींचकर वह उठ खड़ी हुई। उसकी आँखों में आँसू न आये। उसका मुँख क्रोध की ज्वाला में तमतमा उठा, आँखों के अंगारे बरसने लगे। दोनों मुट्ठियाँ बँध गयी। दाँत पीसकर बोली-पापियों, मेरे बच्चे के प्राण लेकर क्यों दूर खडे़ हो ? मुझे भी क्यों नहीं उसी के साथ मार डालते ? मेरे छू लेने से ठाकुर जी को छूत लग गयी ? पारस को छूकर लोहा सोना हो जाता है, पारस लोहा नहीं हो सकता। मेरे छूने से ठाकुर जी अपवित्र हो जाएँगे। मुझे बनाया, तो छूत नहीं लगी ? लो अब कभी ठाकुर जी को छूने नहीं आऊँगी। ताले में बन्द रखो पहरे बैठा दो। हाय, तुम्हें दया छू भी नहीं गयी। तुम इतने कठोर हो ! बाल –बच्चे वाले होकर भी तुम्हें एक अभागिन माता पर दया न आयी ! तिस पर धरम के ठेकेदार बनते हो ! तुम सब के सब हत्यारे हो। डरो मत मैं थाना-पुलिस नहीं जाऊँगी। मेरा न्याय भगवान् करेंगे, अब उन्हीं के दरबार में फरियाद करूँगी। किसी ने चू न की, कोई मिनमिनाया तक नहीं। पाषाण मूर्तियों की भाँति सब सिर झुकाए खड़े रहे। इतनी देर में सारा गाँव जमा हो गया था। सुखिया ने एक बार फिर बालक के मुँह की ओर देखा। मुँह से निकला-हाय मेरे लाल ! फिर वह मूर्क्षित होकर गिर पड़ी। प्राण निकले गये। बच्चे के प्राण दे दिये। माता, तू धन्य है। तुझ-जैसी श्रद्धा, तुझ जैसा विश्वास देवताओं को भी दुर्लभ है !

मानसरोवर 4

प्रेरणा
मेरी कक्षा में सूर्य प्रकाश से ज़्यादा ऊधमी कोई लड़का न था, बल्कि यों कहे कि अध्यापन-काल के दस वर्षों में मुझे ऐसी विषम प्रकृति के शिष्य से साबका न पड़ा था। कपट-क्रीड़ा में उसकी जान बसती थी। अध्यापकों को बनाने और चिढ़ाने, उद्योगी बालकों को छेड़ने और रुलाने में ही उसे आनन्द आता था। ऐसे-ऐसे षड्यन्त्र रचता, ऐसे-ऐसे फंदे डालता, ऐसे–ऐसे बन्धन बाँधता कि देखकर आश्चर्य होता था। गिरोहबंदी में अभ्यस्त था।खुदाई फौजदारों की एक फौज बना ली थी और उसके आतंक से शाला पर शासन करता था। मुख्य अधिष्ठाता की आज्ञा टल जाय, मगर क्या मजाल कि कोई उसके हुक्म की आवज्ञा कर सके। स्कूल के चपरासी और अर्दली उससे थर-थर काँपते थे। इन्सपेक्टर का मुआयना होने वाला था, मुख्य अधिष्ठाता ने हुक्म किया कि लड़के निर्दिष्टि समय से आधा घन्टा पहले आ जाएँ। मतलब था कि लड़कों को मुआयने के बारे में कुछ जरूरी बातें बता दी जाएँ, मगर दस बज गये, इन्सपेक्टर साहब आकर बैठ गये, और मदरसे में एक लड़का भी नहीं। ग्यारह बजे सब छात्र इस तरह निकल पड़े जैसे कोई पिंजरा खोल दिया गया हो। इन्सपेक्टर साहब ने कैफियत में लिखा- डिसिप्लिन बहुत खराब है। प्रिंसिपल साहब की किरकिरी हुई, अध्यापक बदनाम हुए और यह सारी शरारत सूर्यप्रकाश की थी, बहूत पूछताछ करने पर भी किसी ने सूर्यप्रकाश का नाम तक न लिया। मुझे अपनी संचालन-विधि पर गर्व था। ट्रेनिंग कालेज में इस विषय में मैंने ख्याति प्राप्त की थी, मगर यहाँ मेरा सारा संचालन-कौशल जैसे मोर्चा खा गया था। कुछ अक्ल ही काम न करती कि शैतान को कैसे सन्मार्ग पर लायें। कई बार अध्यापकों की बैठक हुई; पर यह गिरह न खुली। नई शिक्षा-विधि के अनुसार मैं दंडनीय का पक्षपाती न था, मगर यहाँ हम इस नीति से केवल इसलिए विरक्त थे कि कहीं उपचार से भी रोग असाध्य न हो जाए। सूर्यप्रकाश को स्कूल से निकाल देने का प्रस्ताव भी किया गया, पर इसे अपनी अयोग्यता का प्रमाण समझकर इस नीति का व्यवहार करने का साहस न कर सके बीस-बाइस अनुभवी और शिक्षा-शास्त्र के आचार्य एक बारह–तेरह साल के उद्दंड बालक को सुधार न कर सकें, यह विचार बहुत ही निराशाजनक था। यों तो हमारा सारा स्कूल उससे त्राहि-त्राहि करता था, मगर सबसे ज्यादा संकट में मैं था, क्योंकि वह मेरी कक्षा का छात्र था और उसकी शरारतों का कुफल मुझे भोगना पड़ता था। मैं स्कूल आता, तो हरदम एक ही खटका लगा रहता था। कि देखें आज क्या विपत्ति आती है। एक दिन मैंने अपनी मेज की दराज खोली, तो उसमें से एक बड़ा-मेढ़क निकल पड़ा। मैं चौंककर पीछे हटा तो क्लास में एक शोर मच गया। उसकी ओर सरोस नेत्रों से देखकर रह गया। सारा घंटा उपदेश में बीत गया और वह पट्ठा सिर झुकाये नीचे मुस्करा रहा था। मुझे आश्चर्य होता था कि यह नीचे की कक्षाओं में कैसे पास हुआ था। एक दिन मैंने गुस्से से कहा- इस कक्षा से उम्र भर नहीं पास हो सकते। सूर्यप्रकाश ने अविचलित भाव से कहा- आप मेरे पास होने की चिन्ता न करें। मैं हमाशे पास हुआ हूँ और अबकी भी हूँगा।‘असम्भव !’‘असम्भव सम्भव हो जायेगा !’’मैंने आश्चर्य से उसका मुँह देखने लगा। जहीन लड़का भी अपनी सफलता का दावा इतने निर्विवाद रूप से न कर सकता था। मैंने सोचा, वह प्रश्न-पत्र उडा़ लेता होगा। मैंने प्रतिज्ञा की, अबकी एक चाल भी न चलने दूँगा। देखूँ, कितने दिन इस कक्षा में पडा़ रहता है। आप घबड़ाकर निकल जाएगा।वार्षिक परीक्षा के अवसर पर मैंने असाधारण देखभाल से काम किया; मगर जब सूर्यप्रकाश का उत्तर-पत्र देखा तो मेरे विस्मय की सीमा न रही। मेरे दो पर्चे थे, दोनों ही में उसके नम्बर कक्षा में सबसे अधिक थे। मुझे खूब मालूम था कि वह मेरे किसी पर्चे का कोई भी प्रश्न हल नहीं कर सकता। मैं इसे सिद्ध कर सकता था; मगर उसके उत्तर-पत्रों को क्या करता ! लिपि में इतना भेद न था जो कोई संदेह उत्पन्न कर सकता। मैंने प्रिंसिपल से कहा, तो वह भी चकरा गये; मगर उन्हें भी जान-बूझकर मक्खी निगलनी पड़ी। मैं कदाचित् स्वभाव ही से निराशावादी हूँ। अन्य अध्यापकों को मैं सूर्यप्रकाश के विषय में जरा भी चिंतित न पाता था। मानो ऐसे लड़कों का स्कूल में आना कोई नई बात नहीं, मगर मेरे लिए वह एक विकट रहस्य था। अगर यही ढंग रहे तो एक दिन यह या तो जेल में होगा, या पागलखाने में।
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उसी साल मेरा तबादला हो गया। यद्यपि यहाँ की जलवायु मेरे अनुकूल थी। प्रिंसिपल और अन्य अध्यापकों से मैत्री हो गई थी, मगर मैं अपने तबादले से खुश हुआ; क्योंकि सूर्यप्रकाश मेरे मार्ग का कांटा न रहेगा। लड़कों ने मुझे विदाई की दावत दी और सब के सब स्टेशन तक पहुँचाने आये। उस वक्त सभी लड़के आँखों में आँसू भरे हुए थे। मैं भी अपने आँसुओं को न रोक सका। सहसा मेरी निगाह सूर्यप्रकाश पर पड़ी, जो सबसे पीछे लज्जित खड़ा था। कुछ ऐसा मालूम हुआ कि उसकी आँखें भी भीगी थीं। मेरा जी बार-बार चाहता था कि चलते-चलते उसके दो-चार बातें कर लूँ। शायद वह भी मुझसे कुछ कहना चाहता था। मगर न मैंने पहले बातें कीं, न न उसने हाँलाकि मुझे बहुत दिनों तक इसका खेद रहा था। उसकी झिझक तो क्षमा के योग्य थी; पर मेरा अवरोध अक्षम्य था। संभव था, उस करुणा और ग्लानि की दशा में मेरी दो-चार निष्कपट बातें उसके दिल पर असर कर जातीं; इन्हीं खोये हुए अवसरों का नाम तो जीवन है। गाड़ी मंदगति से चली। लड़के कई कदम उसके साथ दौड़े। मैं खिड़की के बाहर सिर निकाले खड़ा था। कुछ देर उनके हिलते हुए रुमाल नजर आये। फिर वे रेखाएँ आकाश में विलीन हो गईः मगर एक अल्पकाय मूर्ति अब भी प्लेटफार्म पर खड़ी थी। मैंने अनुमान किया, वह सूर्यप्रकाश है। उस समय मेरा हृदय विकट कैदी की भाँति घृणा, मालिन्य और उदसीनता के बन्धनों को तोड़-तोड़कर उसके गले मिलने के लिए तड़प उठा।नये स्थान की नई चिंताओं ने बहुत जल्द मुझे अपनी ओर आकर्षित कर लिया पिछले दिनों की याद एक हसरत बनकर रह गयी। न किसी का कोई खत आया। न मैंने कोई खत लिखा। शायद दुनिया का यही दस्तूर है। वर्षा के बाद वर्षा की हरियाली कितने दिनों रहती है। संयोग से मुझे इंग्लैण्ड में विद्याभ्यास करने का अवसर मिल गया। वहाँ तीन साल लग गये वहाँ से लौटा तो एक कालेज का प्रिसिंपल बना दिया गया। यह सिद्धी मेरे लिए बिल्कुल आशातीत थी। मेरी भावना स्वप्न में भी इतनी दूर न उड़ी थी; किन्तु पदलिप्सा अब किसी और भी ऊँची डाली पर आश्रय लेना चाहती थी। शिक्षामंत्री से रब्त-जब्त पैदा किया। मंत्री महोदय मुझ पर कृपा रखते थे ?मगर वास्तव में शिक्षा के मौलिक सिद्धान्तों का उन्हें ज्ञान न था। मुझे पाकर उन्होंने सारा भार मेरे ऊपर डाल दिया। घोड़े पर वह सवार थे, लगाम मेरे हाथ में थी। फल यह हुआ कि उनके राजनैतिक विपक्षियों से मेरा विरोध हो गया। मुझ पर जा-बेजा आक्रमण होने लगे। मैं सिद्धान्त रूप से अनिवार्य शिक्षा का विरोधी हूँ। मेरा विचार है कि हर एक मनुष्य की उन विषयों में ज्यादा स्वाधीनता होनी चाहिए, जिनका उनसे निज संबंध है। मेरा विचार है कि यूरोप में अनिवार्य शिक्षा की जरूरत है, भारत में नहीं। भौतिकता सभ्यता का मूल तत्व है। वहाँ किसी काम की प्रेरणा, आर्थिक लाभ के आधार पर होती है। जिन्दगी की जरूरत ज्यादा है; इसलिए जीवन-संग्राम भी अधिक भीषण है। माता-पिता भोग के दास होकर बच्चों को जल्द-से-जल्द कुछ कमाने पर मजबूर कर देते है। इसकी जगह कि वह मद का त्याग करके एक शिलिंग रोज की बचत कर लें, वे अपने कमसिन बच्चे को एक शिलिंग की मजदूरी करने के लिए दबायेंगे। भारतीय जीवन में सात्विक सरलता है।हम उस वक्त तक अपने बच्चों से मजदूरी नहीं कराते, जब तक कि परिस्थिति हमें विवश न कर दे। दरिद्र से दरिद्र हिन्दुस्तानी मजदूर भी शिक्षा के उपकारों का कायल है। उसके मन में यह अभिलाषा होती है कि मेरा बच्चा चार अक्षर पढ़ जाए। इसलिए नहीं कि उसे कोई अधिकार मिलेगा; बल्कि केवल इसलिए कि विद्या मानवी शील का एक श्रृंगार है। अगर यह जान कर भी वह अपने बच्चे को मदरसे नहीं भेजता, तो समझ लेना चाहिए कि वह मजबूर है। ऐसी दशा में उस पर कानून का प्रहार करना मेरी दृष्टि में न्याय-संगत नहीं है। इसके सिवाय मेरे विचार में अभी हमारे देश में योग्य शिक्षकों का अभाव है अर्द्घ शिक्षित और अल्पवेतन पाने वाले अध्यापकों से आप यह आशा नहीं रख सकते कि वह कोई ऊँचा आदर्श अपने सामने रख सकें। अधिक-से-अधिक इतना होगा कि चार-पाँच वर्ष में बालक को अक्षर ज्ञान हो जाएगा। मैं इसे पर्वत खोदकर चुहिया निकालने के तुल्य समझता हूँ। वयस प्राप्त हो जाने पर यह मसला एक महीने में आसानी से तय किया जा सकता है। मैं अनुभव से कह सकता हूँ कि युवावस्था में हम जितना ज्ञान एक महीने में प्राप्त कर सकते है, उतना बाल्यावस्था में तीन साल में भी नहीं कर सकते, फिर खामख्वाह बच्चों को मरदसे में कैद करने से क्या लाभ ? मदरसे के बाहर रखकर उसे स्वच्छ वायु तो मिलती, प्राकृतिक अनुभव तो होते।पाठशाला में बन्द करके तो आप उनके मानसिक और शारीरिक दोनों विधानों की जड़ काट देते हैं। इसीलिए जब प्रान्तीय व्यावस्थापक-सभा में अनिवार्य शिक्षा का प्रस्ताव पेश हुआ, तो मेरी प्रेरणा से मिनिस्टर साहब ने उसका विरोध किया। नतीजा यह हुआ कि प्रस्ताव अस्वीकृत हो गया। फिर क्या था। मिनिस्टर साहब की और मेरी वह ले-दे शुरू हुई कि कुछ न पूछिए। व्यक्तिगत आक्षेप के लिए मैं गरीब की बीवी था, मुझे ही सबकी भाभी बनना पड़ा। मुझे देशद्रोही, उन्नति शत्रु और नौकरशाही का गुलाम कहा गया मेरे कलेजे में जरा-सा भी कोई बात होती तो कौंसिल में मुझ पर वर्षा होने लगती। मैंने एक चपरासी को पृथक किया सारी कौंसिल पंजे झाड़ कर मेरे पीछे पड़ गयी। आखिर मिनिस्टर साहब को मजबूर होकर उस चपरासी को बहाल करना पड़ा। यह अपमान मेरे लिए असहाय था। शायद कोई भी इसे सहन नहीं कर सकता। मिनिस्टर साहब से मुझे शिकायत नहीं। वह मजबूर थे। हाँ इस वातावरण में मेरे लिए काम करना दुस्साध्य हो गया। मुझे अपने कालेज के आंतरिक संगठन का भी अधिकार नहीं। अमुक क्यों नहीं परीक्षा में भेजा गया, अमुक के बदले अमुक के क्यों नहीं छात्रवृत्ति दी गई, अमुक अध्यापक को अमुक कक्षा क्यों नहीं दी इस तरह सारहीन आक्षपों ने मेरी नाक में दम कर दिया था। इस नई चोट ने कमर तोड़ दी। मैंने इस्तीफा दे दिया।मुझे मिनिस्टर साहब से इतनी आशा अवश्य थी कि वह कम से कम इस विषय में न्याय-परायणता से काम लेंगे; मगर उन्होंने न्याय की जगह नीति को मान्य समझा और मुझे कई साल की भक्ति का फल मिला मैं पदच्युत कर दिया गया। संसार का ऐसा कटु अनुभव मुझे अब तक न हुआ था। ग्रह भी कुछ बुरे आ गये थे, उन्हीं दिनों पत्नी का देहान्त हो गया। अन्तिम दर्शन भी न कर सका। सन्ध्या-समय नदी-तट पर सैर करने गया था। वह कुछ अस्वस्थ थीं। लौटा तो उसकी लाश मिली। कदाचित हृदय की गति बन्द हो गयी थी। इस आघात ने कमर तोड़ दी। माता के प्रसाद और आशीर्वीद से बड़े-बड़े महान पुरुष कृतार्थ हो गये हैं। मैं जो कुछ हुआ, पत्नी के प्रसाद और आशीर्वाद से हुआ; वह मेरे भाग्य की विधात्री थीं। कितना अलौकिक त्याग था, कितना विशाल धैर्य। उनके माधुर्य में तीक्ष्णता का नाम भी न था मुझे याद नहीं आता कि मैंने कभी उसकी भृटुकी संकुचित देखी हो, वह निराश होना तो जानती ही न थीं। मैं कई बार सख्त बीमार पड़ा हूँ वैद्य निराश हो गये हैं। पर अपने धैर्ये और शान्ति के अणु-मात्र भी विचलित नहीं हुई, उन्हें विश्वास था कि मैं अपने पति के जीवन काल में मरूँगी और वही हुआ भी। मैं जीवन में अब तक उन्हीं के सहारे खड़ा था ! जब वह अवलम्ब ही न रहा, जीवन कहाँ रहता। खाने और सोने का नाम जीवन नहीं है। जीवन का नाम है, सदैव आगे बढ़ते रहने की लगन का। यह लगन गायब हो गयी। मैं संसार से विरक्त हो गया। और एकान्तवास में जीवन के दिन व्यतीत करने का निश्चय करके एक छोटे से गांव में आ बसा। चारों तरफ ऊँचे-ऊँचे टीले थे, एक ओर गंगा बहती थी। मैंने नदी के किनारे एक छोटा-सा घर बना लिया और उसी में रहने लगा।
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मगर काम करना तो मानवी स्वभाव है। बेकारी में जीवन कैसे कटता। मैंने एक छोटी-सी पाठशाला खोल ली; एक वृक्ष की छांव में गाँव के लड़कों को जमाकर कुछ पढ़ाया करता था। उसकी यहाँ इतनी ख्याति हुई आसपास के छात्र भी आने लगे।एक दिन मैं अपनी कक्षा को पढा रहा था कि पाठशाला के पास मोटर आकर रुकी और उसमें उस जिले के डिप्टी कमिश्नर उतर पड़े। मैं उस समय एक कुर्ता और धोती पहने था। इस वेश में एक हाकिम से मिलते हुए शर्म आ रही थी। डिप्टी कमिश्नर मेरे समीप आए तो मैंने झेंपते हुए हाथ बढा़या, मगर हाथ मिलाने के बदले मेरे पैरों की ओर झुके और उन पर सिर रख दिया। मैं कुछ ऐसा सिटपिटा गया कि मेरे मुँह से एक भी शब्द न निकला। मैं अंग्रेजी अच्छी लिखता हूँ दर्शनशास्त्र का भी आचार्य हूँ व्याखान भी अच्छे दे लेता हूँ। मगर इन गुणों में एक भी श्रद्धा के योग्य नहीं। श्रद्धा तो ज्ञानियों और साधुओं के अधिकार की वस्तु है। मगर मैं ब्राह्मण होता तो एक बात थी। हालाँकि एक सिविलियन का किसी ब्राह्मण के पैरों पर सिर रखना अचिंतनीय है।

मानसरोवर

विश्वास
उन दिनों मिस जोशी बम्बई सभ्य-समाज की राधिका थी। थी तो वह एक छोटी-सी कन्या-पाठशाला की अध्यापिका पर उनका ठाठ-बाट, मान-सम्मान बड़ी-बड़ी धन रानियों को भी लज्जित करता था। वह एक बड़े महल में रहती थीं, जो किसी जमाने में सतारा के महाराज का निवास-स्थान था। वह सारे दिन नगर के रईसों, राजों, राज-कर्मचारियों का ताँता लगा रहता था। वह सारे प्रांत के धन और कीर्ति के उपासकों की देवी थी। अगर किसी को खिताब का खब्त था तो वह मिस जोशी की खुशामद करता था। किसी को अपने या अपने संबंधी के लिए कोई अच्छा ओहदा दिलाने की धुन थी तो वह मिस जोशी की आराधना करता था। सरकारी इमारतों के ठेके; नमक, शराब, अफ़ीम आदि सरकारी चीजों के ठेके; लोहे-लकड़ी, कल-पुरजे आदि के ठेके सब मिस जोशी ही के हाथों में थे। जिस वक्त वह अपनी अरबी घोड़ों की फिटन पर सैर करने निकलती तो रईसों की सवारियाँ आप ही आप रास्ते से हट जाती थीं, बड़े-बड़े दूकानदार खड़े हो-होकर सलाम करने लगते थे।वह रूपवती थी, लेकिन नगर में उससे बढ़कर रूपवती रमणियाँ भी थीं; वह सुशिक्षिता थी, वाक्चतुर थी, गाने में निपुण, हँसती तो अनोखी छवि से, बोलती तो निराली छटा से, ताकती तो बाँकी चितवन से; लेकिन इन गुणों में उसका एकाधिपत्य न था। उसकी प्रतिष्ठा, शक्ति और कीर्ति का कुछ और ही रहस्य था। सारा नगर ही नहीं; सारे प्रांत का बच्चा-बच्चा जानता था कि बम्बई के गवर्नर मिस्टर जौहरी मिस जोशी के बिना दामों के गुलाम हैं। मिस जोशी की आँखों का इशारा उनके लिए नादिरशाही हुक्म है। वह थिएटरों में, दावतों में, जलसों में मिस जोशी के साथ साये की भाँति रहते हैं और कभी-कभी उनकी मोटर रात के सन्नाटे में मिस जोशी के मकान से निकलती हुई लोगों को दिखाई देती है। इस प्रेम में वासना की मात्रा अधिक है या भक्ति की, यह कोई नहीं जानता। लेकिन मिस्टर जौहरी विवाहित हैं और मिस जोशी विधवा, इसलिए जो लोग उनके प्रेम को कलुषित कहते हैं, वे उन पर कोई अत्याचार नहीं करते।बम्बई की व्यवस्थापिका-सभा ने अनाज पर कर लगा दिया था और जनता की ओर से उसका विरोध करने के लिए एक विराट सभा हो रही थी। सभी नगरों से प्रजा के प्रतिनिधि उसमें सम्मिलित होने के लिए हजारों की संख्या में आये थे। मिस जोशी के विशाल भवन के सामने, चौड़े मैदान में हरी-हरी घास पर बम्बई की जनता अपनी फरियाद सुनाने के लिए जमा थी। अभी तक सभापति न आये थे, इसलिए लोग बैठे गप-शप कर रहे थे। कोई कर्मचारियों पर आक्षेप करता था, कोई देश की स्थिति पर, कोई अपनी दीनता पर—अगर हम लोगों में अकड़ने का ज़रा भी सामर्थ्य होता तो मजाल थी कि यह कर लगा दिया जाता, अधिकारियों का घर से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता। हमारा ज़रूरत से ज़्यादा सीधापन हमें अधिकारियों के हाथों का खिलौना बनाये हुए है। वे जानते हैं कि इन्हें जितना दबाते जाओ, उतना दबते जायेंगे, सिर नहीं उठा सकते। सरकार ने भी उपद्रव की आशंका से सशस्त्र पुलिस बुला ली। उस मैदान के चारों कोने पर सिपाहियों के दल डेरा डाले पड़े थे। उनके अफसर, घोड़ों पर सवार, हाथ में हंटर लिये जनता के बीच में निश्शंक भाव से घोड़े दौड़ाते फिरते थे, मानो साफ मैदान है। मिस जोशी के ऊँचे बरामदे में नगर के सभी बड़े-बड़े रईस और राज्याधिकारी तमाशा देखने के लिए बैठे हुए थे। मिस जोशी मेहमानों का आदर-सत्कार कर रही थीं और मिस्टर जौहरी, आराम-कुर्सी पर लेटे इस जन-समूह को घृणा और भय की दृष्टि से देख रहे थे।सहसा सभापति महाशय आपटे एक किराए के ताँगे पर आते दिखायी दिये। चारों तरफ हलचल मच गई, लोग उठ-उठकर उनका स्वागत करने दौड़े और उन्हें लाकर मंच पर बैठा दिया। आपटे की अवस्था 30-35 वर्ष से अधिक न थी; दुबले-पतले आदमी थे मुख पर चिंता का गाढ़ा रंग चढ़ा हुआ; बाल भी पक चले थे, पर मुख पर सरल हृदय की रेखी झलक रही थी। वह एक सफेद मोटा कुरता पहने थे, न पाँव में जूते थे, न सिर पर टोपी। इस अर्धनग्न, दुर्बल, निस्तेज प्राणी में न-जाने कौन-सा जादू था कि समस्त जनता उसकी पूजा करती थी, उसके पैरों पर सिर रगड़ती थी। इस एक प्राणी के हाथ में इतनी शक्ति थी कि वह क्षणमात्र में सारी मिलों को बन्द करा सकता था, शहर का सारा कारोबार मिटा सकता था। अधिकारियों को उसके भय से नींद न आती थी, रात को सोते-सोते चौंक पड़ते थे। उससे ज्यादा भयंकर जन्तु अधिकारियों की दृष्टि में दूसरा न था। यह प्रचंड शासन शक्ति उस एक हड्डी के आदमी से थरथर काँपती थी, क्योंकि उस हड्डी में एक पवित्र निष्कलंक, बलवान और दिव्य आत्मा का निवास था।
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आपटो ने मंच पर खड़े होकर पहले जनता को शांत चित्त रहने और अहिंसा-व्रत पालन करने का आदेश दिया। फिर देश की राजनीतिक स्थिति का वर्णन करने लगे। सहसा उसकी दृष्टि सामने मिस जोशी के बरामदे की ओर गयी तो उनका प्रजा-दुःख पीड़ित हृदय तिलमिला उठा। यहाँ अगणित प्राणी अपनी विपत्ति की फरियाद सुनाने के लिए जमा थे और वहाँ मेजों पर चाय बिस्कुट, मेवे और फल, बर्फ और शराब की रेल-पेल थी। वे लोग इन अभागों को देख-देख हँसते और तालियाँ बजाते थे। जीवन में पहली बार आपटे की जबान काबू से बाहर हो गयी। मेघों की भाँति गरज कर बोले—‘इधर तो हमारे भाई दाने-दाने को मुहताज हो रहे हैं, उधर अनाज पर कर लगाया जा रहा है, केवल इसलिए कि राज्यकर्मचारियों के हलुवे-पुरी में कमी न हो। हम जो देश के राजा हैं, जो छाती फाड़कर धरती से धन निकालते हैं, भूखों मरते हैं; और वे लोग जिन्हें हमने सुख और शांति की व्यवस्था करने के लिए रखा है, हमारे स्वामी बने हुए शराबों की बोतलें उड़ाते हैं। कितनी अनोखी बात है कि स्वामी भूखों मरे और सेवक शराब उड़ायें, मेवे खायें और इटली और स्पेन की मिठाइयाँ चखें ! यह किसका अपराध है ? क्या सेवकों का ?नहीं, कदापि नहीं, हमारा अपराध है कि हमने अपने सेवकों को इतना अधिकार दे रखा है। आज उच्च स्वर से कह देना चाहते हैं कि हम यह क्रूर और कुटिल व्यवहार नहीं सह सकते। यह हमारे लिए असह्य है कि हम अपने बाल-बच्चे दानों को तरसें और कर्मचारी लोग, विलास में डूबे हुए हमारे करुण-क्रन्दन की जरा भी परवा न करते हुए विहार करें। यह असह्य है कि हमारे घरों में चूल्हे न जलें और कर्मचारी लोग थिएटरों में ऐश करें, नाच-रंग की महफिलें सजायें, दावत उड़ायें, वेश्याओं पर कंचन की वर्षा करें। संसार में ऐसा और कौन देश होगा, जहाँ प्रजा तो भूँखों मरती हो और प्रधान कर्मचारी अपनी प्रेम-क्रीड़ाओं में मग्न हों, जहाँ स्त्रियाँ गलियों की ठोकरें खाती फिरती हों और अध्यापिकाओं का वेश धारण करने वाली वेश्याएँ आमोद-प्रमोद के नशे में चूर हों....
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एकाएक सशस्त्र सिपाहियों के दल में हलचल पड़ गयी। उसका अफसर हुक्म दे रहा था—सभा भंग कर दो, नेताओं को पकड़ लो, कोई न जाने पाये। यह विद्रोहात्मक व्याख्यान है।मिस्टर जौहरी ने पुलिस को इशारे से बुलाकर कहा—और किसी को गिरफ्तार करने की जरूरत नहीं। आपटे को ही पकड़ो। वही हमारा शत्रु है।पुलिस ने डंडे चलाने शुरू किए और कई सिपाहियों के साथ जाकर अफसर ने आपटे को गिरफ्तार कर लिया।जनता ने त्योरियाँ बदलीं। अपने प्यारे नेता को यों गिरफ्तार होते देखकर उनका धैर्य हाथ से जाता रहा।लेकिन उसी वक्त आपटे की ललकार सुनाई दी—तुमने अहिंसा-व्रत लिया है और अगर किसी ने उस व्रत को तोड़ा तो उसका दोष मेरे सिर होगा। मैं तुमसे सविनय अनुरोध करता हूँ कि अपने-अपने घर जाओ। अधिकारियों ने वही किया जो हम समझते थे। इस सभा से जो हमारा उद्देश्य था वह पूरा हो गया। हम यहाँ बलवा करने नहीं, केवल संसार की नैतिक सहानुभूति प्राप्त करने के लिए जमा हुए थे और हमारा उद्देश्य पूरा हो गया।एक क्षण सभा भंग हो गयी और आपटे पुलिस की हवालात में भेज दिये गये।
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मिस्टर जौहरी ने कहा—बच्चा बहुत दिनों बाद पंजे में आये हैं, राज-द्रोह का मुकदमा चला कर कम से कम 10 साल के लिए अंडमान भेजूँगा।मिस जोशी—इससे क्या फायदा ?‘क्यों ? उसको अपने किये की सजा मिल जायेगी।’‘लेकिन सोचिए, हमें उसका कितना मूल्य देना पड़ेगा। अभी जिस बात को गिने-गिनाये लोग जानते हैं वह सारे संसार में फैलेगी और हम मुँह दिखाने सलायक न रहेंगे। आप अखबारों के संवाददाताओं की जबान तो बन्द नहीं कर सकते।’ कुछ भी हो, मैं इस जेल में सड़ना चाहता हूँ। कुछ दिनों के लिए तो चैन की नींद नसीब होगी। बदनामी से तो डरना ही व्यर्थ है। हम प्रांत के सारे समाचार-पत्रों को अपने सदाचार का राग अलापने के लिए मोल ले सकते हैं। हम प्रत्येक लांक्षन को झूठ साबित कर सकते हैं, आपटे पर मिथ्या दोषारोपण का अपराध लगा सकते हैं।’‘मैं इससे सहज उपाय बतला सकती हूँ। आप आपटे को मेरे हाथ में छोड़ दीजिए मैं उससे मिलूँगी और उन यंत्रों से, जिनका प्रयोग करने में हमारी जाति सिद्धहस्त है, उसके आंतरिक भावों और विचारों की थाह लेकर आपके सामने रख दूँगी। मैं ऐसे प्रमाण खोज निकालना चाहती हूँ जिनके उत्तर से उसे मुँह खोलने का साहस न हो, और संसार की सहानुभूति उसके बदले हमारे साथ हो। चारों ओर से यही आवाज़ आये कि यह कपटी और धूर्त था और सरकार ने उसके साथ वही व्यवहार किया है जो होना चाहिए। मुझे विश्वास है कि वह षड्यंत्रकारियों का मुखिया है और मैं इसे सिद्ध कर देना चाहती हूँ। मैं उसे जनता की दृष्टि में देवता नहीं बनाना चाहती, उसको राक्षस के रूप में दिखाना चाहती हूँ।’‘यह काम इतना आसान नहीं है, जितना तुमने समझ रखा है। आपटे राजनीति में बड़ा चतुर है।’‘ऐसा कोई पुरुष नहीं है, जिस पर युवती अपनी मोहिनी न डाल सके ।’‘अगर तुम्हें विश्वास है कि तुम यह काम पूरा कर दिखाओगी, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मैं तो केवल उसे दंड देना चाहता हूँ।’‘तो हुक्म दे दीजिए कि वह इसी वक्त छोड़ दिया जाय।’‘जनता कहीं यह तो नहीं समझेगी कि सरकार डर गयी ?’‘नहीं, मेरे ख्याल में तो जनता पर इस व्यवहार का बहुत अच्छा असर पड़ेगा। लोग समझेंगे कि सरकार ने जनमत का सम्मान किया है।’‘लेकिन तुम्हें उसके घर जाते लोग देखेंगे तो मन में क्या कहेंगे ?’‘नकाब डालकर जाऊँगी, किसी को कानों कान खबर न होगी।’‘मुझे तो अब भी भय है कि वह तुम्हें संदेह की दृष्टि से देखेगा और तुम्हारे पंजे में न आयेगा, लेकिन तुम्हारी इच्छा है तो ऐसा आजमा देखो।’यह कहकर मिस्टर जौहरी ने मिस जोशी को प्रेममय नेत्रों से देखा, हाथ मिलाया और चले गये।आकाश पर तारे निकले हुए थे, चैत की शीतल, सुखद वायु चल रही थी, सामने के चौड़े मैदान में सन्नाटा छाया हुआ था, लेकिन मिस जोशी को ऐसा मालूम हुआ मानो आपटे मंच पर खड़ा बोल रहा है। उसका शांत, सौम्य, विषादमय स्वरूप उसकी आँखों में समाया हुआ था।
5
प्रातःकाल मिस जोशी अपने भवन से निकली, लेकिन उसके वस्त्र बहुत साधारण थे और आभूषण के नाम पर एक धागा भी न था। अलंकार विहीन होकर उनकी छवि स्वच्छ, निर्मल जल की भाँति और भी निखर गयी। उसने सड़क पर आकर एक ताँगा लिया और चलीआपटे का मकान गरीबों के एक दूर के मुहल्ले में था। तांगे वाला मकान का पता जानता था। कोई दिक्कत न हुई। मिस जोशी जब मकान के द्वार पर पहुँची तो न जाने क्यों उसका दिल धड़क रहा था। उसने काँपते हुए हाथों से कुंडी खटखटायी। एक अधेड़ औरत ने निकलकर द्वार खोल दिया। मिस जोशी उस घर की सादगी देखकर दंग रह गयी। एक किनारे चारपाई पड़ी हुई थी, एक टूटी आलमारी में कुछ किताबें चुनी हुई थीं, फर्श पर लिखने का डेस्क था और एक रस्सी की अलगनी पर कपड़े लटक रहे थे। कमरे के दूसरे हिस्से में एक लोहे का चूल्हा था और खाने के बरतन पड़े हुए थे। एक लंबा-तड़ंगा आदमी, जो उस अधेड़ औरत का पति था, बैठा एक टूटे हुए ताले की मरम्मत कर रहा था और एक पाँच-छः वर्ष का तेजस्वी बालक आपटे की पीठ पर चढ़ने के लिए उनके गले में हाथ डाल रहा था। आपटे इसी लोहार के साथ उसी के घर में रहते थे। समाचार-पत्रों में लेख लिखकर जो कुछ मिलता था उसे दे देते थे और इस भाँति गृह-प्रबंध की चिंताओं से छुट्टी पाकर जीवन व्यतीत कर रहे थे।मिस जोशी को देखकर आपटे जरा चौंके, फिर खड़े होकर उनका स्वागत किया और सोचने लगे कि कहाँ बैठाऊँ। अपनी दरिद्रता पर आज उन्हें जितनी लाज आयी उतनी और कभी न आयी थी। मिस जोशी उनका असमंजस देखकर चारपाई पर बैठ गयी और जरा रुखाई से बोली—मैं बिना बुलाये आपके यहाँ आने के लिए क्षमा माँगती हूँ किन्तु काम ऐसा जरूरी था कि मेरे आए बिना पूरा न हो सकता। क्या मैं एक मिनट के लिए आपसे एकांत में मिल सकती हूँ।आपटे ने जगन्नाथ की ओर देखकर कमरे से बाहर चले जाने का इशारा किया। उसकी स्त्री भी बाहर चली गयी। केवल बालक रह गया। वह मिस जोशी की ओर बार-बार उत्सुक आँखों से देखता था। मानों पूछ रहा हो कि तुम आपटे दादा की कौन हो ?मिस जोशी ने चारपाई से उतरकर ज़मीन पर बैठते हुए कहा—आप कुछ अनुमान कर सकते हैं कि मैं इस वक्त क्यों आयी हूँ।आपटे ने झेंपते हुए कहा—आपकी कृपा के सिवा और क्या कारण हो सकता है ?मिस जोशी—नहीं, संसार इतना उदार नहीं हुआ कि आप जिसे गालियाँ दें वह आपको धन्यावाद दे। आपको याद है कि कल आपने अपने व्याख्यान में मुझ पर क्या-क्या आक्षेप किये थे ? मैं आपसे जोर देकर कहती हूं कि वे आक्षेप करके आपने मुझ पर घोर अत्याचार किया है। आप जैसे सहृदय, शीलवान, विद्वान आदमी से मुझे ऐसी आशा न थी। मैं अबला हूँ, मेरी रक्षा करने वाला कोई नहीं है ? क्या आपको उचित था कि एक अबला पर मिथ्यारोपण करें ? अगर मैं पुरुष होती तो आपसे ड्यूल खेलने का आग्रह करती। अबला हूँ, इसलिए आपकी सज्जनता को स्पर्श करना ही मेरे हाथ में है। आपने मुझ पर जो लांछन लगाये हैं, वे सर्वथा निर्मल हैं।आपटे ने दृढ़ता से कहा—अनुमान तो बाहरी प्रमाणों से ही किया जाता है।मिस जोशी—बाहरी प्रमाणों से आप किसी के अंतराल की बात नहीं जान सकते।आपटे—जिसका भीतर-बाहर एक न हो, उसे देखकर भ्रम में पड़ जाना स्वाभाविक है।मिस जोशी—हाँ तो वह आपका भ्रम है और मैं चाहती हूं कि आप उस कलंक को मिटा दें जो आपने मुझ पर लगाया है। आप इसके लिए प्रायश्चित करेंगे ?आपटे अगर न करूँ तो मुझसे बड़ा दुरात्मा कोई न होगा।मिस जोशी—आप मुझ पर विश्वास करते हैं।आपटे—मैंने आज तक किसी रमणी पर विश्वास नहीं किया।मिस जोशी—क्या आपको यह संदेह हो रहा है कि मैं आपके साथ कौशल कर रही हूँ ?आपटे ने मिस जोशी की ओर अपने सदय, सजल नेत्रों से देखकर कहा—बाईजी, मैं गँवार और अशिष्ट प्राणी हूँ, लेकिन नारी-जाति के लिए मेरे हृदय में जो आदर है, वह उस श्रद्धा से कम नहीं है, जो मुझे देवताओं पर है। मैंने अपनी माता का मुख नहीं देखा, यह भी नहीं जानता कि मेरा पिता कौन था; किन्तु जिस देवी के दया-वृक्ष की छाया में मेरा पालन-पोषण हुआ उनकी प्रेम-मूर्ति आज तक मेरी आँखों के सामने है और नारी के प्रति मेरी भक्ति को सजीव रखे हुए हैं। मैं उन शब्दों को मुँह से निकालने के लिए अत्यन्त दुःखी और लज्जित हूँ जो आवेश में निकल गये।