Wednesday, June 17, 2009

रौशनी के घरोंदे - बशीर बद्र

कभी-कभी तो छलक पड़ती हैं यू ही आँखें
उदास होने का कोई सबब नहीं होता


तेरी आँखों में ऐसा सँवर जाऊँ मैं
उम्रभर आइनों की ज़रूरत न हो

मैं तमाम तारे उठा-उठा के ग़रीब लोगों में बाँट दूँ
कभी एक रात वो आस्माँ का निज़ाम दें मेरे हाथ में

सोये कहाँ थे आँखों ने तकिये भिगोये थे
हम भी कभी किसी के लिए खूब रोये थे

देने वाले ने दिया सब कुछ अलग अन्दाज़ से
सामने दुनिया पड़ी है और उठा सकते नहीं
यहाँ लिबास की कीमत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम करे दे

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