Wednesday, June 17, 2009

माँ - मुनव्वर राना

ज़रा-सी बात है लेकिन हवा को कौन समझाये,

दिये से मेरी माँ मेरे लिए काजल बनाती है।
मुनव्वर राना
तमाम उम्र ये झूला नहीं उतरता है
मेरी माँ बताती है कि बचपन में मुझे सूखे की बीमारी थी, माँ को यह बताने की ज़रूरत क्या है, मुझे तो मालूम ही है कि मुझे कुछ-न-कुछ बीमारी ज़रूर है क्योंकि आज तक मैं बीमार सा हूँ ! दरअस्ल मेरा जिस्म बीमारी से रिश्तेदारी निभाने में हमेशा पेशपेश रहा है। शायद इसी सूखे का असर है कि आज तक मेरी ज़िन्दगी का हर कुआँ खुश्क है, आरजू का, दोस्ती का, मोहब्बत का, वफ़ादारी का ! माँ कहती है बचपन में मुझे हँसी बहुत आती थी, हँसती तो मैं आज भी हूँ लेकिन सिर्फ़ अपनी बेबसी पर, अपनी नाकामी पर, अपनी मजबूरियों पर और अपनी तनहाई पर लेकिन शायद यह हँसी नहीं है, मेरे आँसुओं की बिगड़ी हुई तस्वीर है, मेरे अहसास की भटकती हुई आत्मा है। मेरी हँसी ‘इंशा’ की खोखली हँसी, ‘मीर’ की ख़ामोश उदासी और ‘ग़ालिब’ के जिद्दी फक्कड़पन से बहुत मिलती-जुलती है।मेरे हँसी तो मेरे ग़मों का लिबास हैलेकिन ज़माना इतना कहाँ ग़म-शनास हैपैवन्द की तरह चमकती हुई रौशनी, रौशनी में नज़र आते हुए बुझे-बुझे चेहरे, चेहरों पर लिखी दास्तानें, दास्तानों में छुपा हुआ माज़ी, माज़ी में छुपा हुआ मेरा बचपन, जुगनुओं को चुनता हुआ बचपन, तितलियों को पकड़ता हुआ बचपन, पे़ड़ की शाखों से झूलता हुआ बचपन, खिलौनों की दुकानों को ताकता हुआ बचपन, बाप की गोद में हँसता हुआ बचपन, माँ की आगोश में मुस्कुराता हुआ बचपन, मस्जिदों में नमाज़ें पढ़ता हुआ बचपन, मदरसों में सिपारे रटता हुआ बचपन, झील में तैरता हुआ बचपन, धूल-मिट्टी से सँवरता हुआ बचपन, नन्हें-नन्हें हाथों से दुआएँ माँगता हुआ बचपन, गुल्ले से निशाने लगाता हुआ बचपन, पतंग की डोर में उलझा हुआ बचपन, नींद में चौंकता हुआ बचपन, ख़ुदा जाने किन भूल-भुलैयों में खोकर रह गया है, कौन संगदिल इन सुनहरे दिनों को मुझसे छीनकर ले गया है, नदी के किनारे बालू से घरौंदे बनाने के दिन कहाँ खो गए, रेत भी मौजूद है, नदी भी नागिनों की तरह बल खा कर गुज़रती है लेकिन मेरे यह हाथ जो महल तामीर कर सकते हैं, अब घरौंदे क्यों नहीं बना पाते, क्या पराँठे रोटियों की लज़्ज़त छीन लेते हैं, क्या पस्ती को बलन्दी अपने पास नहीं बैठने देती, क्या अमीरी, ग़रीबी का ज़ायक़ा नहीं पहचानती, क्या जवानी बचपन को क़त्ल कर देती है ?मई और जून की तेज़ धूप में माँ चीखती रहती थी और बचपन पेड की शाखों पर झूला करता था, क्या धूप चाँदनी से ज्यादा हसीन होती है, माचिस की ख़ाली डिबियों से बनी रेलगाड़ी की पटरियाँ चुराकर कौन ले गया, काश कोई मुझसे कारों का ये क़ाफ़िला ले ले, और इसके बदले में मेरी वही छुक-छुक करती हुई रेलगाड़ी मुझे दे दे, क्योंकि लोहे और स्टील की बनी हुई गाड़ियाँ वहाँ नहीं रुकतीं जहाँ भोली-भाली ख़्वाहिशें मुसाफ़िरों की तरह इन्तिजार करती हैं, जहाँ मासूम तमन्नाएँ नन्हें-नन्हें होठों से बजने वाली सीटियों पर कान लगाए रहती हैं।कोई मुझे मेरे घर के सामने वाला कुआँ वापस ला दे जो मेरी माँ की तरह ख़ामोश और पाक रहता था, मेरी मौसी जब मुझे अपने गाँव लेकर चली जातीं तो माँ ख़ौफज़दा हो जाती थी क्योंकि मैं सोते में चलने का आदी था, माँ डरती थी कि मैं कहीं आँगन में कुएँ में न गिर पड़ूँ, माँ रात भर रो-रोकर कुएँ के पानी से कहती रहती कि, ऐ पानी ! मेरे बेटे को डूबने मत देना, माँ समझती थी कि शायद पानी से पानी का रिश्ता होता है, मेरे घर का कुआँ बहुत हस्सास था, माँ जितनी देर कुएँ से बातें करती थी कुआँ अपने उबलते हुए पानी को पुरसुकूत रहने का हुक्म देता था, शायद वह मेरी माँ की भोली-भाली ख्वाहिशों की आहट को एहतेराम से सुनना चाहता था। पता नहीं यह पाकीज़गी और ख़ामोशी माँ से कुएँ ने सीखी थी या कुएँ से माँ ने ?गर्मियों की धूप में जब टूटे हुए एक छप्पर के नीचे माँ लू और धूप से टाट के पर्दों के ज़रिए मुझे बचाने की कोशिश करती तो मुझे अपने आँगन में दाना चुगते हुए चूज़े बहुत अच्छे लगते जिन्हें उनकी माँ हर खतरे से बचाने के लिए अपने नाजुक परों में छुपा लेती थी। माँ की मुहब्बत के आँचल ने मुझे तो हमेशा महफूज रखा लेकिन गरीबी के तेज झक्कड़ों ने माँ के खूबसूरत चेहरे को झुलसा-झुलसा कर साँवला कर दिया। घर के कच्चे आँगन से उड़ने वाली परेशानी की धूल ने मेरी माँ का रंग मटमैला कर दिया। दादी भी मुझे बहुत चाहती थी। वह हर वक़्त मुझे ही तका करती, शायद वह मेरे भोले-भाले चेहरे में अपने उस बेटे को तलाश करती थी जो ट्रक ड्राइवर की सीट पर बैठा हुआ शेरशाह सूरी के बनाए हुए रास्तों पर हमेशा गर्मेसफ़र रहता था।

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